Friday, August 29, 2008

वृक्ष

मैं वृक्ष हूँ
मार्ग की शोभा बढाने वाला वृक्ष
पीकर प्रदूषण को
मै प्राणवायु देता हूँ
मृगशिरा की तपन में
छाया देकर
मै शीतलता का
अनुभव करवाता हूँ
मै वृक्ष हूँ
मुझे तरु भी कहते हैं
मैं तारणहार भी हूँ
सम्पूर्ण प्राणि-जगत् का
ग्रीष्म की धधकती धरिणी से
निकलने वाली लौ को सहकर
आकाश में रौद्र-रूप धारण किये
सवितृ की तपन को सहकर
मैं पथिकों को छाया और विश्राम देता हूँ
मैं वृक्ष हूँ
मुझे विटप भी कहते हैं
पशु-पक्षियों की तो मैं
शरणस्थली हूँ
या यो कहें कि उनका चिर आवास हूँ
पक्षियों का कलरव मेरे लिये संगीत है
उनका चँहचँहाना मेरे हृदय का स्पन्दन है।
मैं वृक्ष हूँ
प्रथम मानव ने भी
मुझको अपना आवास बनाया था
जब उसका कोई सहारा न था
तब मैने ही उसे अपनाया था
पर आज मैं उसी से उपेक्षित हूँ
उसी से पीडित हूँ
मैं वृक्ष हूँ
कम नही है मेरी व्यथा-कथा
यदि कहीं वाल्मीकि जैसा कवि मिल जाता
तो मेरी व्यथा
रामायणी कथा से भी
कारुण्यपूर्ण होती
आज मैं बहुत व्यथित हूँ
मैं वृक्ष हूँ
यहाँ झूठी सान्त्वना देने वालो की
भीड है मेरे सामने
पर मुझे हर सान्त्वना से स्वार्थ की बू आती है
ये विडम्बना है मेरी कि
मेरे अटकते प्राणों को बचाने के लिये
कोई पर्यावरणविद् सामने नही आता
पत्रिकाएँ रिपोर्ट देती हैं
पर कोई नही सुनता
बाली द्वीप के विश्व पर्यावरण सम्मेलन में
हमें प्रदूषण का
लाखों टन उपहार में देकर
वहाँ पहुचने वाले
विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने
हमारी मर रही सन्ततियों की
मौत के मूल कारणों पर
बात करना आवश्यक नही समझा
दो मिनट मौन की कौन कहे
वहाँ भी हमारी समस्या
किसी को गम्भीर नही लगी
क्योकि.......
मैं वृक्ष हूँ
मानवता अनभिज्ञ है इससे
या जानना नही चाहती
कि मेरी मौत
सम्पूर्ण मानवता की मौत है
क्योकि मै उसका सुरक्षा कवच हूँ
बिना कवच के सुरक्षा भला कहाँ होती है
आज मै इस तथाकथित "सभ्य मनवों" से त्रस्त हूँ
इनसे तो अच्छे वो "पैगन" थे
जो हमारी पूजा करते थे
जो हमारे प्रति विनयशील थे
इस "सभ्यता" से मुझे क्या करना
जहाँ मेरे लिये अवकाश नही है
पूजा तो स्वप्न की बात है
वैसे ही जैसे भारत
"सोने की चिडियाँ" कहा जाता था
यह भारतीय जनता के लिये
स्वप्न की बात है
या मात्र किवदन्ती है।
मेरे लिये तो अब सब सपना है
क्योंकि....
मैं वृक्ष हूँ।

Thursday, August 28, 2008

प्रथम नमन

वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस दिव्य दिया का,
जलता रहता शाम-सुबह जो,
मेरे अंधकार पथ पर,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महासलिल का,
जो मेरे जीवन खेतों ,
को नित-नित सींचा करता है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महावायु का,
बहता रहता क्षुद्र हृदय में,
जो अविरल प्राणरूप में,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस वसुधानी का,
जो अपने उर
पर हम सबको,
सदा धरा करती है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महागगन का,
जो अपने मानस-विशाल का
परिचय देता जनमानस को,
बार-सहस्त्र वन्दन है
लक्ष-बार अभिनन्दन है
कोटिशः अर्चन है,
उस जीवनदायिनी माँ का,
उस प्राणवाहिनी माँ का,
उस प्रेमसिंचिका माँ का.......
जो मेरे भौतिक शरीर में,
रक्त-रूप बहा करती है,
तमस्-विहीन मार्ग हेतु
जो नित तिल-तिल जला करती है,
जो अपने असीम प्रेमजल से,
मुझको सींचा करती है....................