Tuesday, December 28, 2010

कैसा नववर्ष?


इस कड़कती ठण्ड में
कैसा नववर्ष?
सिसकियों का
खुशी से
कैसा आकर्ष?
मानव का
प्रकृति से
घोरतम संघर्ष?
मृत्यु का
जिजीविषा से
सनातन विमर्श।
फिर..........
इस कड़कती ठण्ड में
कैसा नववर्ष?

Monday, December 27, 2010

वन्दनीय


वन्दनीय वह निष्कम्प दीप है,
जो झंझावातों में जलता।
वन्दनीय शाश्वत प्रदीप है,
जो जगती का तम हरता।
वन्दनीय वह सागर-सीप है
गर्भ में जिसके मोती पलता।
अभिनन्दनीय वह मानस भी है
जो इन्हें स्नेह से सींचा करता।।

Sunday, December 19, 2010

ये कुहासा कब मिटेगा?


कालप्रियानाथ का कण्ठ नहीं साथ है।
दधीचि-अस्थि का वज्र नहीं पास है।
जो इस कालकूट विष का पान कर सके।
इन राक्षसी प्रवृत्तियों का संहार कर सके।
मानवता के अश्रु की धार बह रही।
दानवता अट्टहास कर संहार कर रही॥
त्रयम्बक का तीसरा नेत्र कब खुलेगा?
शुचिता का सूर्य कब क्षितिज पर उगेगा?
प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त कब होंगी?
मनुजता को पशुता से मुक्ति कब मिलेगी?
ये दानवी नरपिशाच मनुष्य कब बनेंगे?
पद्मसर में पावनपूज्यपुष्प कब खिलेंगे?
भगवन्! ये धुंध, ये कुहासा कब मिटेगा?
भ्रष्टाचार का गहन बादल कब छँटेगा?

Tuesday, December 14, 2010

लय, ताल छन्द हो तुम.............

लय, ताल, छन्द हो तुम,
कविता स्वच्छन्द हो तुम।
समीर मलय-मन्द हो तुम,
जीवन-आनन्द हो तुम।
नील वितान हो तुम,
नूतन विहान हो तुम।
पुहुप-मकरन्द हो तुम,
जीवन-आनन्द हो तुम।
तुम जब हँसती हो,
सरिता बहती है.....
अठखेलियों की नादों की।
सावन की भादों की।
मिट जाती हैं
सारी अनुभूतियाँ
दुःख, चिन्ता
और अवसादों की।।

Monday, December 13, 2010

प्रतिस्पर्द्धा


आज के इस युग में
हर तरफ प्रतिस्पर्द्धा है।
कौरव-पाण्डव तो
अतीत की कड़ियाँ हैं
यहाँ घोटालों के कुरुक्षेत्र में,
हर कोई महारथी है
हर कोई योद्धा है॥

Sunday, December 12, 2010

एक सपना



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हरियाली के बीच
प्रथम बार उसे
जब ईंट-पत्थर दिखा।
शनैः-शनैःखड़ी होती
इमारत दिखी
हृदय में विकास की
एक अलख जगी
आगे बढ़ने की
जीवन जीने की,
ललक जगी॥
उसकी आँखों में भी
एक सपना जगा
पर.................
जैसे –जैसे इमारत
ऊपर उठती गयी,
आकाश को छूती गयी,
उसका सपना
तार-तार होता गया।
जो कुछ .....
अबतक उसका था
धरती,
आकाश,
हवा ,पानी
और हरियाली
उस पर से भी
वह अधिकार खोता गया।

एक शब्द.............




आशा ही
मेरे जीवन की परिभाषा है
बस यही शब्द मेरे जीने की आशा  है
एक शब्द भी दे सकता है
जीवन
सिखा सकता है
जीवन का राग,
भर सकता है
जीवन में अनुराग
और उसमें
फूलों की सुगन्ध बसा सकता है
एक शब्द,
एक शब्द ही तो है आशा
जिसके सहारे जीवन चला करता है
हारना भी एक शब्द ही है
जीतना भी एक शब्द ही है
शब्द ही है दुःख और सुख
शब्द ही है हास और रुदन
शब्द ही है जीवन की जीवन्तता
शब्द का अस्तित्व ही अनुभूति है
हमारे होने का
शब्द का अस्तित्व ही प्रतीति है
हमारे जीने का
शब्द ही भय है
शब्द ही साहस
अन्यथा..........
निःशब्द से भला कोई
डरता है?
शब्द ही शासन करता है
शब्द से ही शासन चलता है
आशा और विश्वास सब तो शब्द ही है
तो..................................
आइये हम
शब्द का संधान करें
शब्द की साधना करें,
शब्द की अर्चना करें,
शब्द की वन्दना करें,
शब्द की आराधना करें

Thursday, December 9, 2010

जब इस हमाम में सब नंगे हैं


आज उनके चेहरे से नकाब उतरने लगा,
निष्कलंक छवि पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा
अभी तक बने हुए थे रंगे सियार जो,
बनते थे जनता के परवरदिगार जो,
उनके चेहरे का रंग धुलने लगा॥
अभी तलक चमकता था जो चेहरा,
अब उसी का रंग उड़ने लगा।
पर ताज्जुब है..............
हैरानी इस बात की है.
कि....................
चेहरे का रंग उड़ा,आभा काफूर हुई,
मुख आरक्त हुआ, चमक दूर हुई।
पर कहीं भी आँखों में
वो लाज,
वो हया,
वो शर्म न दिखी,
जो शर्मसार होने पर होती है।
जो अपराधी की आँखों में बसती है।
आखिर वे शर्मायें तो किससे?
आँखें चुराये तो किससे?
जब इस हमाम में सब नंगे हैं।

Wednesday, December 8, 2010

शब्दों का सच

उपसर्गों को लगा-लगाकर
शब्द तो हमने खूब गढ़े हैं।
अरुणोदय से अबतक
शब्द तो हमने खूब पढ़े हैं।
शब्दों को कंठस्थ कर-करके
हमने नव सोपान चढ़े हैं।
पर नहीं पूछना कभी भी भाई
शब्दों में जो अर्थ भरे हैं॥
कहने में भयभीत नहीं हूँ
कि अर्थ हमने नहीं पढ़े हैं।
उनमें कुछ को बता सकेगें,
पर गूढ़ार्थ तक चले न जाना।
तुम्हारी भी हम पोल जानते
कहीं पड़े न तुम्हें पछताना।
उसी खेत में तुम भी उपजे
जो मेरा जाना-पहचाना।
इसीलिये गूढ़ार्थ को छोड़ो
पूछो वही, जो हमें बताना।।

Monday, December 6, 2010

कौन देगा अभयदान?


एक अंकुर ने
गीली मिट्टी के अन्दर से
परिश्रम कर
अपना शीश उठाया है,
संसार की खुशियाँ  बटोरने
नन्हा हाथ फैलाया है।
उसकी आहट सुन
वायु ने
प्रकाश ने,
मिट्टी और जल ने
सहयोग के लिये
अपना हाथ बढ़ाया है।
बस उसे चाहिए एक और सहयोग.............
मानवीय सहयोग.....
उगने के लिये
उगकर बढ़ने के लिये
बढ़कर अंकुर से
विशाल वृक्ष बनने के लिये
निर्विघ्न जीवन जीने के लिये
अब देखना है कि............
कौन देगा अभयदान?