Monday, November 25, 2019

परिंदा :- प्रियंका चुघ


परिंदा पंख फैलाए आसमान को छू रहा हैं
परिंदो के झुण्ड में मदमस्त हो रहा हैं
उड़ान उसकी ऊंची हैं लेकिन मंज़िल अभी दूर हैं
किसी के साथ का सहारा चाहिए
साहस के लिए उसे अपनों की महफ़िल चाहिए
अहंकार तो चुटकी भर भी नहीं हैं इस परिंदे में
आखिर पानी पीने के लिए उसे ज़मीन पर ही तो आना पड़ता हैं
झाकले अपने अंदर परिंदे, यह दुनिया बड़ी महरूम हैं
सजदे में सिर झुकाये तू हवा से बाते करले
भरोसा रख उस रब पर, तेरी नींद बड़ी मीठी हैं
सुबह की किलकारी में, धूप की छायो में, रात की मस्ती में
तू कर्म किए चले जा
पिंजरे में कैद ये परिंदा अब उड़ान ले रहा हैं

Thursday, October 3, 2019

फूल : मञ्जरी त्रिपाठी

कितने सुन्दर होते हैं फूल
अपनी मुस्कान से सबका मन मोह लेते हैं फूल
सबको अपनी तरह जीना सिखाते हैं फूल
नई उमंग और नई ऊर्जा से सबका हृदय आप्लावित
करते हैं फूल
अपनी सुगंध से वातावरण को सुगंधित करते हैं फूल
अपने रंगों से सबके जीवन में रंग भरते हैं फूल।


मञ्जरी त्रिपाठी
नई दिल्ली 

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे: महेश कुमार बोस

जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे, 
जिसे देखकर फूल भी भरने लगते हैं आंंहे।
वो जगह महकने लगती हैं जहाँ वो जाते हैं, 
हम क्या वो तो फरिश्तों पर भी सितम ढाते हैं।
उनके बारे में यारों भला अब क्या कहे हम,
बहुत कहना हैं पर वो चाहते हैं चुप ही रहे हम। 

वो तो अपनी आंखों से कई पैमाने भर सकते हैं, 
उनकी एक झलक पाने को लाखों दिवाने मर सकते हैं। 
वो जब कभी अचानक अपनी नजरें झुकाते हैं, 
गुल सभी गुलशन के एक साथ झुक जाते हैं। 
वो जब हवा में यूँ ही अपना दुपट्टा लहराते हैं, 
गुलाब, चमेली, मोगरे डाल संग गिर जाते हैं।

उनकी बातें तो यारों मिश्री की डलिया हैं, 
उनके बाल फूलों वाले बेलो की लडियाँ हैं। 
उनके गालों का तो महताब खुद दिवाना हैं, 
उनके होठ जैसे किसी गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं।
वो जब कभी हौले-हौले हंसते मुस्काते हैं, 
बेमौसम ही बरखा वाले बादल
 छा जाते हैं।

महेश कुमार बोस 
उदयपुर राजस्थान 

Monday, September 16, 2019

हकीकत: कल्पना ठाकुर

मेरी ज़िंदगी
     क्या चीज़ है कमाल की,
     लहर है मशाल की।
तमन्ना है 
     न हो सौ साल की
क्योंकि 
     ये है बड़े बेताल की।

ये ज़िंदगी, 
     इक मीठा ज़हर है,
     टूटा बड़ा कहर है, 
     हँस-हँस के बिताना है जिसे, 
     बस ऐसा हीं इक पहर है।
हालांकि, 
     ये कुछ और नहीं,
     बस ख्वाबों का नहर है।

ये ज़िंदगी है, 
     उलझनों से भरी 
     और बस कष्टों की लड़ी
निभानी है, 
     हर रिश्तों की कड़ी 
हाय,
     ये कैसी विपदा में मैं पड़ी।

ये ज़िंदगी,
     भावनाओं का मेल है, 
     हसरतों की जेल है, 
     चलती हुई इक रेल है
     और किस्मत का खेल है।

ये ज़िंदगी 
     है अंजान की,
है फिक्र किसे,
     दुसरे इंसान की।
आगमन है, 
     हर रोज़ मेहमान का,
पर सहारा 
     सिर्फ भगवान का।

मुझे, 
     तोड़नी हर ज़ंजीर है, 
     पानी हर मंज़िल है, 
     है फिक्र नहीं सुर-ताल की
क्योंकि, 
     मेरी ज़िंदगी है बड़े बेताल की ।।


   कल्पना ठाकुर 

Saturday, August 31, 2019

निश्छल प्रेम : सलिल सरोज

आख़िर 
तुम मुझे क्या दे पाओगे 
ज्यादा से ज्यादा 
अपराध बोध से भरी हुई अस्वीकृति 
या 
आत्मग्लानि से तपता हुआ निष्ठुर विछोह 

हालाँकि 
इस यात्रा के पड़ावों पर 
कई बार तुमने बताया था 
इस आत्म-मुग्ध प्रेम का कोई भविष्य नहीं 
क्योंकि 
समाज में इसका कोई परिदृश्य नहीं 

मैं 
मानती रही कि 
समय के साथ 
और 
प्रेम की प्रगाढ़ता 
के बाद 
तुम्हारा विचार बदल जाएगा 
समाज का बना हुआ ताना-बाना 
सब जल जाएगा 


पर मैं गलत थी 
समय के साथ 
तुम्हारा प्यार 
और भी काल-कवलित हो गया 
तुम्हारा हृदय तक 
मुझसे विचलित हो गया 

तुम तो पुरुष थे 
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति 
कभी कृष्ण, कभी अर्जुन की नियति 
समाज की सब परिपाटी के तुम स्वामी 
संस्कार,संस्कृति सब  तुम्हारे अनुगामी 

फिर भी 
प्रेम पथ पर 
तुम्हारे कदम न टिक पाए 
विरक्ति-विभोह के 
एक आँसू भी न दिख पाए 

मैं 
नारी थी 
दिन-दुनिया,घर-वार 
चहुँओर से 
हारी थी 

मुझको ज्ञात था
अंत में 
त्याग  
मुझे  ही करना होगा 
सीता की भाँति 
अग्नि में 
जलना होगा 

पर 
मैं 
फिर भी तैयार हूँ 
तमाम सवालों के लिए 
मैं खुद से पहले 
तुम्हारा ही बचाव करूँगी 
और 
जरूरत  पड़ी तो 
खुद का 
अलाव भी करूँगी 

मैं बदल दूँगी 
सभी नियम और निर्देश 
ज़माने के 
और 
हावी हो जाऊँगी 
सामजिक समीकरणों पर 
और इंगित कर दूँगी 
अपना 
''निश्छल प्रेम''
जो मैंने 
जीकर भी किया 
और मरने के बाद भी 
करती जाऊँगी 

सलिल सरोज 

अनुश्रुति सिंह

कभी कभी कुछ गलतियां हमसे हो जाती है
अनजाने ही सही पर हो जाती है
उन गलतियों में हम इतना फस जाते है
की होश आते ही खुद को कहीं गिरा हुआ पाते है।

इतना तो पता है कि 
ये ख़ुदा जो भी करता है उसके पीछे कुछ अच्छा छिपा रहता है
अच्छा हो या बुरा हो पर कुछ लिखा रहता है
इसलिए, कभी इन्ही गलतियों के कारण किसी को उठा देता है तो किसी को गिरा देता है।

लेकिन कुछ गलतियां हमसे यूँ हो जाती है
जैसे तूफ़ान आती है सब बर्बाद करके यूँ चली जाती है
लगता है जैसे पहले हम कहाँ थे और अब हम कहाँ हैं
हम दूसरों की क्या कहें
हम अपनी खुद की ही नजरो में खुद को गिरा हुआ पाते है।

कुछ की नजरों में गिरते है 
तो कुछ को मायूस करते है
कुछ को दुख होता है 
तो कुछ मुख फेर लेते है।

बाद में पछताने से कुछ नहीं होता है
क्योंकि जो होना था वो हो चुका होता है
उन गलतियों के बारे में सोचने में क्या रखा है
जो खोना होता है वो खो चुका होता है

बस एक ही राह बच जाती है
भूल जाओ वो सब, सीख ले लो उनसे
की ऐसी गलती होगी न फिर से
जिससे हम गिर जाए अपनी नजरो में फिर से।

खुद को न इतना मायूस करना
इतना न सोचना की उसी में खोए रहना
क्योंकि अब आगे नही बढ़े तो 
उन्हीं ग़लतियों को संवारने में पूरी ज़िंदगी लगा डोज
क्या पता कल कोई मौका फिर से इन्ही गलतियों से न निकल जाए।

बस इतना ध्यान रखना
जो हो गया सो हो गया
वो होगा न फिर से
आखिर गलतियां तो होती ही है इंसानों से
इसलिए खुद को न यूँ कोसो हद से।

अपने कदमो को ऐसे बढ़ा
की मंजिल खुद पास आने को तरसे तेरे
और कामयाबी हाथ मे रही तेरे
तो कोई भी गलतियों को भूल से सोचेगा नहीं तेरे।

इसलिए जो हो गया सो हो गया
ऐसा होगा न फिर से 
बढ़ा कदम आगे अपने
पास आ जाएंगे फिर से तेरे अपने और सपने।।      
       
                  - अनुश्रुति सिंह।

कहफ रहमानी

हृ' - स्पर्शराग-रंजित भूषित - भव
नीत-सकल सम्यक न
समतामूलक - प्रमाण 'स्पर्श'
हस्तगत प्रेक्षा का ऊष्मीयमान।


शैथिल्य _आश्लथ, प्रगाढ़ चुम्बन
अहा!       अरी,        अहो ;
उच्छृंखल, उच्छवसित _स्वरैक्य - स्वन।


अयी, मेदिनी
प्रीतिपात  का मूल्य फिर?

"संदर्भ-वैशिष्ट"   तुम
किन्तु शीर्षक भिन्न-भिन्न,

संकेन्द्रित सुसूक्त यह  
" कर अर्पित यौवनोपहार 
क्षम्य नहीं  कौमार्य"। 

अट्टहास मादन वक्ष पर के
मधुमत्त कटि, विहंसित - कुसुमित नितम्ब 
औ'  कच-कुन्तल 
स्यात_  पृष्ठ अनेक एक ही पुस्तक के 
विशिष्ट वस्ति-प्रदेश एक। 


तृषा स्तर-स्तर 
तीव्र-तीव्र - मदिर - मधुरिम 
आवृत्त निरन्तर। 

मैं अल्कावलि! 
उदग्र  विकारों की  महौषधि 
रक्तचाप केवल
बाह्य - आंतरिक  द्विपात - निपात। 

समाविष्ट रक्त - वीचियों में 
समस्त  केलि, 
मैं केलिकला! 
आकृतियों पर उल्लिखित 'रोष '
उद्वेग - उद्द्वेप। 

भिन्न_ समस्टिकुल से
प्रगाढ़ आलिंगन, द्रवण, संघनन 
निरन्तर अवतरित हृ-पृष्ठों पर। 

परिपक्व विचार श्रेष्ठतम 
 आदर्शों पर 
पृष्ठ_दीर्घ     न लघुव्याल। 

"क्लांत वह्नियों  का न कोई  अर्थ 
व्यर्थ है यह  मूर्च्छा, अवसन्नता "।

Monday, May 6, 2019

मेरा आशियाना: उमेश पंसारी


बागों का फूल वो खिलाना
चिड़ियों का वो शोर मचाना
आंगन में तुलसी मैया के
पौधे को जल पान कराना

माँ का वो घर को सजाना
बहना का वो प्यार लुटाना
नन्हें से बच्चों का वो
सुबह शाम ही शोर मचाना

कहानी को दादी से सुनना
रात को मीठे सपने बुनना
सुबह देव को तिलक लगाना
हाथ जोड़कर भोग लगाना

पूजा की वो थाल सजाना
आरती में वो साथ में गाना
पढ़ते पढ़ते खेलों में ही
एक दिन वो अफसर बन जाना

पापा की उस सीख को पाना
माँ के हाथ का खाना खाना
सबके हाथ मिलाकर ही तो
बनता है अपना आशियाना.... |

उमेश पंसारी

 सुभाषमार्ग इंग्लिशपुरा सीहोर, मध्यप्रदेश

माँ : अमरनाथ दक्षिण

तेरी दुआ में मैं हरपल रहा,
तेरी सपनों में मैं हरपल हंसा,
रोता था कभी चोट लग जाने पर,
तू आती थी, चुप कराती थी,
प्यार से मेरे बालों को सहलाती थी।

तू घबराती थी, कि मैं तुमसे
कहीं दुर न चला जाऊं,
अपने आंखों के सामने,
मुझे देखकर मुस्कुराती थी।

तू मेरे लिए हर वो दर्द सहती थी,
जिसको सहने की तू हकदार न थी,
पर फिर भी, उस दर्द से मिले 
आसुओं को छुपाकर मुस्कुराती थी,
क्योंकि मैं खुश रहूं,
इसी में तेरी जिंदगानी थी।

चल पड़ता था कभी किसी गलत राह पर,
तो तू हाथ पकड़कर
मुझे खींच लाती थी,
सही रास्ते पर चलना,
तेरी हर एक बात मुझे सिखलाती थी।

तेरी हर एक डांट,
मेरे लिए एक सिख थी मां,
यह जानकर आज मैं
न जाने कहां खो जाता हूं ,
तेरी उसी डांट को
आज फिर से पाने के लिए,
तरसता हूं, बस तरसता जाता हूं।।

 अमरनाथ दक्षिण
बिलासपुर