जिनके कांधे से दुपट्टा भी ना छुटना चाहे,
जिसे देखकर फूल भी भरने लगते हैं आंंहे।
वो जगह महकने लगती हैं जहाँ वो जाते हैं,
हम क्या वो तो फरिश्तों पर भी सितम ढाते हैं।
उनके बारे में यारों भला अब क्या कहे हम,
बहुत कहना हैं पर वो चाहते हैं चुप ही रहे हम।
वो तो अपनी आंखों से कई पैमाने भर सकते हैं,
उनकी एक झलक पाने को लाखों दिवाने मर सकते हैं।
वो जब कभी अचानक अपनी नजरें झुकाते हैं,
गुल सभी गुलशन के एक साथ झुक जाते हैं।
वो जब हवा में यूँ ही अपना दुपट्टा लहराते हैं,
गुलाब, चमेली, मोगरे डाल संग गिर जाते हैं।
उनकी बातें तो यारों मिश्री की डलिया हैं,
उनके बाल फूलों वाले बेलो की लडियाँ हैं।
उनके गालों का तो महताब खुद दिवाना हैं,
उनके होठ जैसे किसी गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं।
वो जब कभी हौले-हौले हंसते मुस्काते हैं,
बेमौसम ही बरखा वाले बादल
छा जाते हैं।
महेश कुमार बोस
उदयपुर राजस्थान
1 comment:
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