Thursday, November 27, 2008

विस्फोटों के इस युग में..............

विस्फोटों की इस दुनियाँ में
जान बचाना मुश्किल है
आज मिलो तुम आकर मुझसे
कल का बहाना मुश्किल है
कोयल जो कूक रही है
कल इसका गाना मुश्किल है
आज किसी का भाग्य बताना मुश्किल है
विस्फोटों के इस युग में..............

Sunday, October 26, 2008

किस घड़ी

तुम जान सको मेरी बातों को
वो दिन कहाँ कब आयेगा
तुम समझ सको मेरे जज्बातो को
वो दिन कहाँ कब आयेगा
कब आयेगा दिवस सुहाना
जब सीप से मोती निकलेगा
कब आयेगी घड़ी सुहानी
जब पावन दीप जलेगा
जाने कब पावन दीप
हमें प्रकाश से भरेगा।
बस यही सोचता रहता हूँ कि
ऐसा भी दिन आये कभी
कि जान सको तुम मुझको
सारस्वत प्रतिभा को भी
पर आयेगा कब सुयोग यह
यह प्रतीक्षा की बात है
पूरी हो इस जनम में
या और जनम की कोई
जादुई और तिलिस्म भरी
झिलमिलाती बात है ।
न जाने कब कोयल
सावन में गीत गायेगी खुशी से
भर कर कण्ठ में रागिनी नई
पता नही कब मधुर गीत
मेरे प्यासे कर्णपटों को
सुनायेगी. गुनगुनायेगी वह
जाने कब
किस घड़ी
पता नही
हमें कुछ……..

Friday, October 17, 2008

वे सोते रहे

कुछ हुआ
उनके घर के पास
पर उन्हें भनक तक न लगी
वे आराम से
मखमली गद्दों पर सोते रहे
और बाहर लोग रोते रहे
पर उन्हें भनक तक न लगी
क्योंकि उन चीखों मे
उनके “अपनों” की चीख न थी
जिससे उनको भनक लगती

Monday, September 29, 2008

अपने घिनौने राष्ट्रदोही कृत्यों पर थोड़ा शरमाएँ

कल तक खिलखिला रहे थे

चेहरे जिनके

आज उन्हीं चेहरों पर

उदासी छायी है

कल तक जो खूब वकालत करते थे

आतंकवाद और आतंकवादियों की

आज उनके चेहरों पर खामोशी छायी है

इस परिवर्तन के पीछे कोई

बड़ा कारण नही है

यह तो आदत में शुमार है

उनके............

यह उनकी, इनकी, सबकी आदत है यहाँ

या यो कहे यही "मानवता" है

कि जब तक दूसरे मरते रहते हैं

जब तक दूसरों की कत्ल होती रहती है

जब तक दूसरे बचाव की
गुहार लगाते रहते हैं

तब तक इनके, उनके, सबके

कानों में रुई ठूंसी रहती है

कुछ सुनाई नही देता

आँखों पर पट्टी बँधी रहती है

कुछ दिखायी नही देता

दिखायी भी क्यों दे?

सुनाई भी क्यों दे?
चाहते भी कहाँ हैं ये

देखना, सुनना और कुछ

सार्थक प्रतिक्रिया करना

ये तब तक नही देखते हैं

तब तक नहीं सुनते हैं

तब तक नहीं कुछ भी सार्थक कहते हैं

जब तक इन पर आँच न आये

जब तक ये सुरक्षित हैं

तब तक मुलायम तकियों का

सहारा ले सोते रहेंगे

और कुछ सार्थक बोलेंगे नहीं

बस..........

साम्प्रदायिक ताकतों को गैरसाम्प्रदायिक

और गैरसाम्प्रदायिक को

साम्प्रदायिक कहते रहेंगे।

और जब इन पर कोई आँच आयेगी

तब बिलखेगे

छोटे बच्चों से भी बढ़कर

जब तक इन पर कहर नही बरपता

तब तक ये आतताइयों को

अपने शब्दों से

अपने धन से

अपने जनबल से

अपनी सम्पूर्ण ताकत से

संरक्षण देते रहेंगे

और पूर्ण मह्नोयोग से

सरकारे पैसा डकारकर

पेट पर हाथ फेरेते हुए

हमारे तथाकथित"बुद्धजीवियों" के

गढ़ में
भारत को

गरियायेंगे

और इस पर रंगे सियार बुद्धजीवी
फ़ख्र से मुस्कुराएंगे
और तालियाँ बजायेंगे।

पालेगे ये आस्तीन के साँप

और तब तक देगे उनको संरक्षण

तब तक करेंगे उनका संवर्धन

तबतक करेंगे उनकी
वंशवृद्धि
पर यह एक सत्य है
अकाट्य सत्य !
जिससे भारतीय इतिहास
समय-समय पर
वाकिफ होता रहा है
पर भारतीय उससे कभी सबक नही लेते
और फिर-फिर दोहराते रहते हैं
उसी सत्य को कि...................
आस्तीन में साँप पालना
घातक होता है
वह न केवल पालने वाले
को बर्बाद करता है
अपितु उसके वंशजों के
भी घर उजाड़ता है
साक्षी है इसका हमारा इतिहास भी
चाहे कितना ही
वामपंथी उसे पढ़ाने न दें
पर हमारे स्मारक उसका
ज्ञान करा ही देते हैं।
अतः आस्तीन के साँप पालकर
उनको नचाकर तमाशा दिखाने वालों को
बाज आना चाहिये अन्यथा
वह दिन बहुत दूर नहीं है जब
अपनों की कराह से
मर्मान्तक पुकार से
चीखते अपने सम्बन्धियों के कण्ठों को सुनकर
विवश होकर उनको
अपनी आँख खोलनी पड़ जायेगी
जलेगा उनका मकाँ भी
और उन्हें भी अपनी हवेली
छोड़नी पड़ जायेगी
अतः आतंक के ठेकेदारो को शह देने से
उनकी तरफदारी करने से
उनको अपना मेहमान बनाने से
और व्यर्थ में पुलिस व भारत सरकार
प्रदेश सरकारों को
बदनाम करने से बाज आयें
और अपने घिनौने राष्ट्रदोही
कृत्यों पर
थोड़ा शरमाएँ

हमें क्रोध नहीं आया

उनकी शरारत
हमारी खुशामत
दोनो झूठी थी
इसलिये.................
वास्तविकता का
पता चलने पर
हमें क्रोध नहीं आया
कोई क्षोभ नहीं हुआ।

Monday, September 22, 2008

कुछ क्रियान्वित करें

कहीं किसी के मुख से
सुना मैंने
सुना तुमने
सोचा कि चलो
सुने हुए को
कुछ क्रियान्वित करें
सपनों से हम
वास्तविक
धरातल पर उतरें
हम उतरने ही वाले थे कि
सामने देखा
अस्त-व्यस्त हालत में
एक हम सा
"सुने हुए को क्रियान्वित करने वाला"
आ रहा था
अपने फटे लबादे के साथ
हमने देखा उसका हालात
हमारा सारा साहस
छुप गया विचारों की ओट मे
तब तक तुमने कहा
कि अब हम कुछ नहीं
कर सकते
आओ अब लौट चले
हाँ
समस्या ये नहीं है कि
लोग वास्तविक धरातल पर
आना नहीं चाहते
पर समस्या इस बात की है कि
उस धरातल पर आकर वे
अपना अमन चैन खोना नहीं चाहते
बस इसीलिये वे
"सुने हुए को क्रियान्वित"
करना नहीं चाहते।

Friday, September 19, 2008

यदि मैं भी अपना साथ छोड़ दूँ……………..

मैं कमरे में बैठा

सोंच रहा था

कि अंजाम क्या होगा

मेरे कार्यों का?

मेरे उन शाबासी लायक कारनामों का

तब तक टी वी पर नज़र गयी

ज़ुबान मेरी

मुँह में ही

फँस गयी

मैं एकटक देखता रहा

समझ में कुछ भी न आया

पर सुनता रहा

मन में विचारों को

बुनता रहा

उसी घेरे में डूबता रहा

डूबकर उतरता रहा

और.....................

मैं यही करता रहा

सोंचता रहा

तब तक टी वी पर चेतावनी आयी

कि शहर में घूम रहे हैं

आतंकवादी कई

मेरा दिल सिहर उठा

मैंने बन्द किया

टेलीविजन

और.........

बच निकलने का रास्ता

तलाशने लगा

एक नया विचार

बुनने लगा

इन्ही विचारों से तो

अब तक पुलिस से

खुफिया एजेन्सियों से

बचता रहा हूँ

नज़र में आकर भी छुपता रहा हूँ

जेल के सलाखों से भी

निकलता रहा हूँ

भीड़ में भी घूमता रहा हूँ

क्योंकि यदि मैं भी

अपना साथ छोड़ दूँ

फिर भी मेरा दिमाग

मेरा साथ नहीं छोड़ता

वह सदैव अपना कार्य करता रहता है

नये विचार बुनता रहता है

और हर बार मुझे बचाता रहता है

इसी से इस बार भी मैं बच निकला।

उनका सुन्दर तोहफ़ा...........

कूछ दिनों पहले
हमने अल्लाह से वादा किया था
कि................
रमजान के महीने में
तुम्हें सुन्दर
धमाकेदार तोहफ़ा देंगे
इसी की फिराक में मुझे नींद
नहीं आती थी
सोचता था
कि कैसे?
किसी महानगर की
खुफिया एजेन्सियों की
भारत सरकार की
सरकार के मन्त्रियों की
और आम जनता
की
नींद खराब की जाये?
यही सोचते-सोचते
रात भर करवट
बदलता रह जाता था
और मेरी नींद
हमेशा की तरह अधूरी रह जाती थी
हमें बस एक बात की
हमेशा फिराक रहती थी
कि कैसे
हम खुश करें
अल्लाह को!
इसी फिराक में मैं
फिरता रहता था
इधर-उधर
पुलिस की नज़र से बचकर
भागता रहता था
मौका तलाशता रहता था
क्योंकि मुझे सिर्फ
समय ही नही चाहिए था
मुझे चाहिए था ऐसा समय
जब केवल काफ़िरों की ही
नींद हराम हो
मेरे भाई ठीक से सो सकें
ऐसा समय मिला एक दिन मुझे
मगरिब की नमाज़ के समय
इफ्तार के समय
और हमने धमाकों से
दहला दिया
भारत को
विश्व को
भारतीय सरकार को
खुफिया एजेंसियों को
और आम जनता को
भारत के दिल दिल्ली
में किया जबरदस्त धमाक
और दे दिया अल्लाह को
उनका सुन्दर तोहफ़ा...........
अब हम भी अच्छे से इफ़्तार कर सकेंगे
इस खुशी में कुछ दिन
चैन से रह सकेंगे
कम से कम ईद तक...............

Friday, September 12, 2008

तुम न आई और मैं बाट जोहता रहा .........................

तुमने कहा था कि.....................
रात के अंधकार मे मिलोगी तुम
मैंने भी सुना था कि
रात के अंधकार में मिलोगी तुम
दुर्भाग्य से उस दिन
जिस दिन का ये
वाकया है
पूनम की रात थी
अंधेरी रात तो
बहुत दूर की बात थी
फिर भी
पत्थर रख
अपने कलेजे पर
मैंने तुम्हारी यह
शर्त बिना शर्त
स्वीकार की
तब से न जाने
कितनी अंधेरी रातें
बितायी मैंने इन्तज़ार की
उसी दिन से मैं
अमावस की बाट जोहता रहा
बस तुमको ही खोजता रहा
न जाने तब से कितने अमावस आये
कितनी पूनम की रातें बीतीं
मैं पागलों सा
बस तुम्हारा ही
हाँ बस तुम्हारा ही
बाट जोहता रहा
पर आज हज़ारों पूनम
और हजारों अमावस
बीतने के बाद भी
तुम न आयी
और मैं ..............
पागलों सा बाट जोहता रहा
पर ये देखकर भी
तुम्हे दया न आयी
उस पूनम की रात से
जिसकी यादें मैं
आज तक सँजोता रहा
मुझे न पड़ी दिखाई कभी
तुम्हारी परछाईं
क्योंकि तुम निष्ठुर !
वचन देकर
कभी लौटकर न आयी
और मैं..................
और मैं................
पागलों सा
तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा
दिनों को गिनता रहा
पर कभी वो अंधेरी रात न आई
जिसमें तुम मिलती
अन्ततः तुम न आई
और मैं.........................
बाट जोहता रहा

क्योंकि हमें हमारी मंजिल मिल गयी जिसकी हमें तलाश थी वर्षों से......

चलते-चलते
रास्ते में तुमने कहा
और मैंने सुना
बाद में भी
कुछ तुमने कहा
कुछ मैंने कहा
कुछ तुमने सुना
कुछ मैंने सुना
बात जब तलक
मंजिल तक पहुँची
हम जब तलक
मंजिल तक पहुँचे
तब तक कुछ न याद रहा
कि..................
क्या तुमने कहा
क्या मैंने कहा
क्या तुमने सुना
क्या मैंने सुना
अब इन बातों का
न कोई लेखा-जोखा रहा
क्योंकि हमें वो
मंजिल मिल गयी
जिसके लिये
हम वन-वन
भटकते फिर रहे थे
हमें वो मंजिल मिल गयी
हमारी यात्रा पूरी हो गयी
इसलिये........
न ये याद रहा यहाँ पर
कि रास्ते में
क्या तुमने कहा?
क्या मैंने कहा?
क्या तुमनें सुना?
क्या मैंने सुना?
अब इन बातों से कोई
सरोकार न रहा
क्योंकि हमें हमारी
मंजिल मिल गयी
जिसकी हमें तलाश थी
वर्षों से......
जिसकी हमें प्यास थी
वर्षों से........................

Thursday, September 11, 2008

कल तलक उनका बड़ा शोर था

कल तलक उनका बड़ा शोर था
हर तरफ़ उनके नाम का ही रोर था
कोई नही जानता था बात क्या है?
आखिर उनकी बिसात क्या है?
पर...........
जब एक दिन सीबीआई का
छापा पड़ा उनके घर
जब सूखने लगे "उनके" अधर
तब सबको समझ में आया
कि आखिर बात क्या है
उनकी ये बिसात क्या है
बसती हैं ऎसे लोगो के घर लक्ष्मी
आखिर इसकी बात क्या है
पर...............
लोगों ने यह भी देखा कि
लक्ष्मी का बसना कुछ भी नही होता
बिसात से भी कुछ नही होता
जब न्याय के प्रहरी सजग होते है
जब अत्याचार के पलड़े भारी होते है
तब ये लक्ष्मीपति सीबीआई को
द्वार पर देख कर बगलें झाकने
लगते हैं
तब इनका तथाकथित स्वाभिमान
धारा रह जाता है ।
यह स्वाभिमान मात्र
गरीबों को दिखाने के लिये होता है
जो नहीं जानते हैं इनकी हकीकत
या जानते हिए भी जाना नहीं चाहते
अलग कहीं के लिये
इनके पास स्वाभिमान जैसी
कोई चीज़ नही होती
पर इसका भी पोल
तब खुल ही जाता है
जग-जाहिर हो ही जाता है जब
सीबीआई द्वार पर होती है
कोई बड़ा रार छिड़ा होता है
जब वो तकरार पर उतरती है
तब इनका चेहरा नीचा होता है
शर्म से
ग्लाने से
या फर्जी स्वाभिमान की
पोल खुलने से हुई बदनामी से
तब पता चलती है इनकी बिसात

और आज अर्धशतक बाद जब होते हैं उसी घाटी में धमाके

आकाश में पक्षी उड़ रहे थे
सूरज की किरणें
अपनी सुनहली आभा
बिखेर रही थीं
सहसा क्या हुआ
भर गया गगन
धूल के कणों से
पक्षियों के शोर से
खो गयीं सूरज की
रुपहली किरणें
जिन्हें देखते थे लोग
अपनें मकानों के अन्दर से
उन किरणों के खोने से
भयभीत लोग
क्या हुआ-क्या हुआ की
रट लगाये
चिल्लाते
सड़कों पर
स्तब्ध घूम रहे थे
सबकी निगाहे
भयभीत हो
एक-दूसरे को आश्वासन दे रही थी
आश्चर्य से भरे थे लोग
कि सहसा क्या हुआ
कहाँ खो गयी सूरज की रोशनी
कैसे छा गयी ये बारूदी धुन्ध
और...........
आज..............
अर्धशतक बाद
जब होते हैं......
उसी घाटी में.......
धमाके...............
जब धुन्ध छाती है
सूरज की किरणों पर
तब किसी को
नही होता
कोई आश्चर्य
क्योंकि आज वहाँ की
हवा
सूरज
सूरज की रोशनी
रात का अँधियारा
वहाँ के लोग
बच्चे
बूढ़े
जवान
सभी
बारूद के इन धमाकों को
सुनने के
अभ्यस्त हो गये हैं
अब किसी को इनसे
कोई आश्चर्य नही होता

Tuesday, September 9, 2008

उन पर अलगाववाद के बीज बोये जा रहे हैं

अलगाव की
भावनाए भड़क रही हैं
भाषावाद की चिमनियाँ
सुलग रही हैं
वोट बैंक के लालच में
विषबेल जो
पनप रही है
धीरे-धीरे-धीरे जो
कंगूरे पर चढ़ रही है
कल क्या जाने
दृश्य दिखायेगी वह
क्या जाने कल क्या
रूप लेकर आयेगी वह
महाराष्ट्र में कभी
ठाकरे चिल्लाता है
कभी माओवाद
अपने गले फाड़ता है
कभी नक्सलवादी करते हैं
नक्सलवाद ज़िन्दाबाद
खड़े होकर
भारत के सीने पर
आज........................
देश का चाहे जो कुछ भी हो
चाहे वो स्वाहा भो जाये
चाहे उसकी हवन हो चाहे
चाहे उसे कफन मिल जाये
चाहे वो मिट्टी में मिल जाये
चाहे धूल-धूसरित हो जाये
राजनीति के कारण
कोई उसकी परवाह नही करेगा
चाहे क्यों न भारत पुनः गुलाम हो जाये
इस अखण्ड देश में
भाषायी विविधता
के बावजूद भी
राष्ट्रीय एकता
पलती थी
भाषा अलग होकर भी
भूषा अलग होकर भी
अन्तस् की भावनाएँ मिलती थीं
पर आज उन भावनाओं को
गरम जल से सींचकर
उन पर अलगाववाद के बीज बोये
जा रहे हैं

Monday, September 8, 2008

पर नदियाँ क्या करे वे तो स्वयं त्रस्त हैं

मुझे रास्ते में
नदियाँ मिलती थीं
हँसती खिलखिलाती
कभी-कभी समुद्र भी मिल जाते थे
इन नदियोँ की ज़्यादती से परेशान
इनकी ढिठाई से वे रहते थे हैरान
उनकी व्यथा-कथा भी कुछ और थी
सदियों से वे सह रहे थे नदियों की
प्रताड़ना
झेल रहे थे अपार वेदना
पर कभी कुछ नही थे कहते
रहते थे हमेशा सहते
पर.............................
जब नदियों ने सारे ज़हाँ का
कूड़ा-करकट
धरती की सारी मैल
बहाकर
समुद्र के सीने पर पटकनें लगीं
तब भी समुद्र कुछ नहीं बोला
उसने सोचा कि
शायद ये नदियाँ
अपने इस ओछी हरकत से
सम्हल जायें
मेरी हालत देख कर
अपनी गतिविधियों से
बाज़ आयें
वह देखता रहा
कुछ दिन और
सुधार के सपने बुनता रहा
कि मेरी प्रेयसी
सुधर जायेगी
और अपने इस
अतिक्रमण से बाज़ आयेगी
वह कुछ दिन देखता.......................
पर जब उसने देखा कि
उसकी सहनशक्ति
ज़बाब दे रही है
और नदी अति कर रही है
तब उसने भी
नदियों द्वारा लाया सारा
कूड़ा-करकट
नदियों को
धरती को
पृथ्वी वासियों को
कल कारखानों के मालिकों को
सरकार को
वापस देने के लिये
वर्षों से अपने
खौलते खून को
वर्षों से अपने
उबलते खून को
धरती पर बहा दिया
नदियों को भी
मिट्टी में मिला दिया
सबको उनके मुँह की
खिला दिया
तोड़कर अपने
गाम्भीर्य को
अपना रौद्र रूप दिखा दिया
उसने यह रूप स्वेच्छा से
नही दिखाया बल्कि
उसे बाध्य किया गया
लोगों द्वारा
लोगों की गतिविधियों द्वारा
नदियों की गतिविधियों द्वारा
पर नदियाँ क्या करे वे तो स्वयं त्रस्त हैं
इसीलिये शायद
समुद्र उन्हें आज तक
क्षमा करता रहा
सारे भार को स्वयं सहन करता रहा ।

Friday, September 5, 2008

चाँदनी रात की हँसी हमें भाती नहीं

चाँदनी रात की हँसी हमें भाती नहीं

जब तक हामारे खेमे में अँधेरा है

हमें पूर्णिमा बिल्कुल सुहाती नहीं

जब तक अमावस्या का अँधेरा है

बातें बनाने से कुछ नही होगा

जब तक हम हकीकत पर उतर न आयें

तुम्हें आजमाने से कुछ नही होगा

जब तक हम स्वयं निखर न आयें

मात्र राहत दिलाने से कुछ नही होगा

जब तक सामग्री मेरे घर न आये

कभी- कभी हमें भी कुछ "पूजा" चढ़ाया करो।

तुमको देखा और तुम
उड़ गये
ये अन्याय करना
तुमने कहाँ से सीखा
वाह जी नायाब है
तुम्हार ये तरीका
कभी पकड़ में
तो आ जाया करो
हमारे हाथों अपनी जान
कभी-कभी गँवाया करो
तुम रोज़ हमारा खून चूसते हो
चूसकर भाग जाते हो
कभी अपनी शहादत भी
दे दिया करो
वरना जानते हो
हम मानव हैं
तुमसे भी खतरनाक है
जब हम काटेगे तो
तनिक पता भी न चलेगा
तुम क्या तुम्हारे वंशजों का भी
सत्यानाश हो जायेगा
अतः गनीमत इसी में है कि
कभी- कभी हमें भी
कुछ "पूजा" चढ़ाया करो।

काश आकाशीय पक्षियों की तरह मेरे भी पर होते

काश आकाशीय



पक्षियों की तरह



मेरे भी पर होते



मैं भी आकाश में उड़ सकता



मै भी आकाश से बातें कर सकाता



मैं भी पूरी धरती देख सकता



मैं भी घोसलों में



रह सकता



मैं भी पक्षियों के खाद्य खा सकता



तो कितना अच्छा होता



शान्ति से तो जी सकता



शान्ति से तो रह सकता



घर बनाने का कोई झंझट



नही होता


घोसले में ही सो सकता



पैसे बटोरने की कोई चिन्ता नही होती



सन्तोष से जी सकता



मानवों की बात नहीं सुनता



सुनकर भी नज़र अन्दाज़ करता



तब मेरे कितने मज़े होते



मैं वसन्त हूँ और तुम हो कोकिला

तुम कहती हो कि
मुझे जानती नही
कैसे कह सकती हो तुम
कि मुझे पहचानती नही
पिचले कई बरसों के वसन्त से
मै तुम्हे जानता हूँ
तुम्हे और तुम्हारी
गतिविधियों को
मैं पहचानता हूँ
मै यह भी जानता हूँ
कि जनता के सामने
तुम्हारी रागिनी
शरमा जाती है
मैं यह भी जानता हूँ कि
तुम एकान्त प्रिया हो
मैं यह भी जानता हूँ कि
तुम मधुरकण्ठा हो
पर तुम मुझे नही जानती
मुझे नहीं पहचानती
सुनकर आश्चर्य होता है
कि जो जिससे जीता है
उसी जीवन को नही पहचानता
पहचानने से इन्कार करता है
मैं जानता हूँ कि
तुम्हारे जीवन
तुम्हारी रागिनी
तुम्हारे अस्तित्व का
आधार मैं ही हूँ
तुम मानों या न मानों
कैसे तुम कह सकती हो कि
मुझे नही जानती
मुझे नही पहचानती
सोचो ज़रा
विचारो ज़रा
कि क्या मेरे विना तुम्हारा
कुछ अस्तित्त्व हो सकता है
क्या मेरे विना तुम
वनों में
कुञ्जों में
वाटिकाओँ में
छिपकर अपनी मधुर कूक
छोड़ सकती हो?
क्या तुम मेरे विना अपनी
दस्तक नन्दनवन में दे सकती हो?
खैर ठीक है..........
यदि तुम नहीं जानती
नहीं पहचानती
तो मैं ही करवा देता हूँ
अपना अभिज्ञान
तो जानना चाहोगी कि मै कौन हूँ
सुनो.........
ध्यान से सुनना.....................
ताकि फिर कभी यह मत कहो
कि मैं नही पहचानती
समाधिस्थ हो सुनना
ताकि यह कभी न कहो
कि मै नहीं जानती
............................
मैं वसन्त हूँ
जिसके आने पर धरती
पुलकित होती है
वृक्ष प्रफुल्लित होते हैं
सभी प्रमुदित होते हैं
मैं वसन्त हूँ
जिसके आने पर तुम
मगन हो
निर्भय हो
कुञ्जों में बैठकर
कूँजती हो
क्योंकि मैं तुमको प्रदान करता हूँ
एकान्त कुञ्जों की शीतल छाया
मैं तुम्हे प्रदान करता हूँ
कुञ्जों से आने वाली
पुष्पोँ की सुगन्ध
अब कभी मत कहना के मैं नही पहचानती
मैं तुम्हार जीवन हूँ
तुम्हारे अस्तित्त्व का आधार हूँ
मैं वसन्त हूँ
और तुम हो कोकिला


कोसी का कोप

कोसी का कोप
इतना भयानक होगा
हमारी सरकार
अमारे नौकरशाहों नें
स्वप्न में भी
सोंचा नही होगा
तभी इस विपत्तिके
पूर्वानुमानों के बाद भी
उनकी कुम्भकर्णी निद्रा
भंग नही हुई थी
वे काग़ज़ों के ढ़ेर में
मुलायम तकियों का सहारा ले
शुतुर्मुर्गी समाधान ढ़ूढ़ रहे थे
और जब
बिहार डूब रहा है
वहाँ तबाही मची है
त्राहि माम् त्राहि माम्
का करुण स्वर
सर्वत्र वातावरण में
गूँज रहा है
जब जन-धन-स्थल
सब दूब रहा है
तब वे शाक्ड हैं
कह रहे हैं
क्या हो रहा है
मुझे तो इसका अन्दाज़ा
ही नही था
और सब चीजों
में तो अमेरिका की नकल
करनें में हम
सबसे आगे हैं
या यो कहें कि
अमेरिकन से भी
आगे हैं
पर किसी अच्छी चीज़ की
नकल के समय
हमारी बुद्धि
कुंद क्यों हो जाती है
हम अच्छाई की
नकल क्यों नही करते?
आज यदि हम
उसकी नकल किये होते
उसके पदचिह्नों
पर सचमुच चले होते
उसकी अच्छाइयों को
आत्मसात् किये होते
तो................
जैसे उसने गुस्ताव से बचाव किया
वैसे हम भी
बचाव के उपाय किये होते
कमसे कम इत्नी तबाही से तो
बच गये होते

Thursday, September 4, 2008

युवा पीढ़ी और मैं

स्मृतियाँ मेरे इर्द-गिर्द घूमती हैं
स्टेज शो करती हैं
कैटवाक करती हैं
मेरी आँखे विस्मय से
उन्हें देखती रह जाती हैं
देखते-देखते पता नही कहाँ
शून्य में खो जाती हैं
तब यकायक मैं अपने तज़ुर्बे
और अपने ज़माने पर उतरता हूँ
मेरे दिमाग में कौंधती है तब
मेरे अपने समय की यादें
मेरा अपना अतीत
अतीत की आनन्ददायाक गतिविधियाँ
और तब मैं करने लगता हूँ
वर्तमान और अतीत की तुलना
करने लगता हूँ
समय के साथ हुए परिवर्तनों की गणना
तब मुझे इन युवाओं की
कुछ गतिविधियाँ शूल सी चुभती हैं
मेरे अन्तस् को कचोटती हैं
मुझे व्यथित कर जाती हैं
और मेरा दिमाग चकरा जाता है
कि ये सब क्या हो रहा है
मेरे समय में
हम ऎसे तो नहीं थे
मुझे युवाओं की सब दलीलें
समय की माँग के नाम पर
वे जो देते हैं
फूटी आँखों नही सुहाती
मेरे जिह्वा पर नाचने लगते हैं
इनके विरोध के शब्द
मैं मौन नही रह पाता
भँग करके अपने मौन को
इनको समझाने लगता हूँ
पर जब मैं देखता हूँ
कि मेरे करोड़ो शब्दों के उपदेश के बाद
भी हालात कुछ सुधर नहीं रहे
तो हारकर मौन हो जाता हूँ
और परिस्थितियों के अनुरूप
अपने को ढालकर जीता रहता हूँ
क्योंकि युवा पीढ़ी से मैं मज़बूर हूँ
उनको मै सुधार तो नही सकता
पर उनकी बातों
उनकी गतिविधियों
उनकी कार्यशैली को
नज़रान्दाज़ तो कर सकता हूँ
सोंचता हूँ
उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें
समय उन्हें सब कुछ सिखा देगा।

अति कोई नहीं सह सकता

कलकल बहती
छलछल बह्ती
निशिदिन है जो चलती रहई
मानसर से मिलती रहती
वो है सरिता
अनवरत्
विना रुके
विना थके
जो चलती रहती
वो है सरिता
मनवता को जीवन देती
प्रकृति में जीवन भरती
वो है सरिता
वृक्षों का सिंचन करती
धरती को उर्वर करती
वो है सरिता
प्यास बुझाती
हर प्यासे हा
भेदभाव वह तनिक न करती
जो निशिदिन है चलती रहती
वो है सरिता
गिरि गह्वर से
सतत प्रवाहमान
कभी नहीं जिसको अभिमान
सेवा करती मानवता का
नही कोई प्रतिकर लेती
वो है सरिता
पर मानव
अत्याचारी हो
करता रहता जिसका शोषण
करता निशिदिन जिसका दोहन
पर सदियों तक उफ़
तक न जो करती
वो है सरिता
शोषित हो कर भी जो जीवित
तनिक नही जो हुई कुपित
वो है सरिता
सदियों तक जिसका जल सोखा
जिसको दिया हमेशा धोखा
पर जिसनें अपना प्रवाह न रोका
रही अनवरत् बहती
वो है सरिता
पर……
अति होने से प्रलय है आता
प्रलय आने से
परिवर्तन होता है
परिवर्तन होने से
ताण्डव नर्तन है होता
आकिर वह भी कब तक सहती
अनवरत् शान्ति से बहती
वो है सरिता
आज मानवों के अत्याचारों से
उसके क्रूरतम व्यवहारों से
कुपित हो वह
धारण कर चुकी है
रौद्र रूप
विकराल स्वरूप
देखो वह है अट्टाहास करती
वो है सरिता
पर…………..
इस कार्य पर
हमें दुःख हो रहा
क्यों हो रहा है
इसलिये नहीं कि
उसने रौद्र रूप क्यों धारण किया
नही करना चाहिये था
वह और अत्याचार सहती
वो है सरिता
हमें दुःख सिर्फ़ इसलिये हो रहा है
कि उसने
निर्दोषों पर कहर बरपा
निर्दोषों को ही
अपना रौद्र रूप दिखाया
दोषी तो आज भी
एयर कण्डीशनरों में बैठे
मज़ा ले रहे हैं
उनके किये का सज़ा
निर्दोष भुगत रहे हैं
जब प्रकृति भी डरती है
कोप करनें को
दोषियों पर
सज़ा देने को
दोषियों को
तो मानव- निर्मित न्यायालय के
न्यायाधीश किसी
मालदार चिड़िया को
सज़ा देने में क्यों न डरें?
उन्हें तो डरना ही चाहिये
पर यदि मानव
स्वयं को
प्रकृति विजेता मानता है
तो न्यायाधीशों को
बिल्कुल नही डरना चाहिये
निर्भीक हो
दोषियों को
सज़ा सुनाना चाहिये
जैसे कल
बी एम डब्ल्यू रन एण्ड हिट काण्ड में
दोषियों को सुनायी गयी है
प्रकृति यदि दोषियों को
सज़ा नही दे सकती
तो उस पर विजयी मानव को
अवश्य सज़ा देनी चाहिये
तभी इस विजय की कोई
सार्थकता होगी।
अन्यथा हर गली में
ताण्डव मचेगा
और मचाने वाली
वही होगी
जो है सरिता
क्योंकि अति
कोई नही सह सकता ।

नज़रों को नीचा कर

अकाश में उड़ते पक्षियों के परों से कभी मत खेलना
क्योंकि उन परों में तुम सी शक्ति नही
पर उनकी आहों मे शक्ति है
आहों की शक्ति राख कर देगी
राजमहलों के कंगूरों को भी
इसीलिये गनीमत इसी में है कि
अपनी नज़रों को नीचा कर
अपने रास्ते पर चला करो
क्योकि उनको तुम्हारा
इधर-उधर देखना रास नही आता।

हम इस सदी के मानव हैं

प्रकृति कठपुतली है
हमारे हाथों की
यह क्रान्ति आ रही है
हमारे बातों की
हम गर्व से देखे जाते हैं
महफिल में सराहे जाते हैं
हम इस सदी के मानव हैं
दुनिया टिकी है
हमारे कन्धों पर
पर हमें कोई दर्द नही होता
क्योंकि………………
दर्द की अनुभूति के लिये
भावनायें चाहिये
और हमारी भावनाओं का
कत्ल कर दिया है
हमारे “ सभ्य पूर्वजों” नें
जानना चाहते हो
कि वे कौन हैं
जिन्होंने कत्ल किया
हमारी भावनाओं का
सभ्यता की दुहाई देकर
प्रगति की दुहाई देकर
यदि हाँ तो सुनो
वे हैं…..
रेने देकार्ट और न्यूटन
तथा उनके अनुयायी
जिन्होंने छीन ली हमारी मौलिकता
और दे दी हमको
थोपी हुई कृत्रिमता
जिन्होंने छीन लिया
हमारे बचपन की
बाललीलाओं को
और बना दिया हमें
“जाब ओरियन्टेड”
सारी प्रकृति को
हमारे कदमों में रखने का
स्वप्न दिखाया हमें
पर रह गये “ढाक के तीन पात”
अब उनकी कृपा का यह
सुपरिणाम होगा
कि कोई बालक
कभी कृष्ण सा माखनचोर
नही बन पायेगा
न कोई पुत्र
राम सा आज्ञाकारी
हो पायेगा
क्योंकि ये सब “टाइम वेस्टिंग” है
जब जाब की टेंशन है
तो टाइम बचाना है
अन्यथा अरबपतियों की सूची में
नाम कैसे हो पायेगा
अगर छोटी उम्र में
कहीं काम न मिले
तो थोड़ी सी कलाकारी दिखाकर
फिल्मों में तो एक्टिंग
किया ही जा सकता है
किसी रियलिटी शो में तो
भाग लिया ही जा सकता है
अधिक पढाई से भी क्या होगा
वो तो बुद्धजीवियो का काम है
हमकों तो
मल्टीनेशनल कम्पनियों को ही देखना है
अतः कोई
प्रोफेशनल कोर्स ही कर लेते हैं
हमे बुद्धजीवी बनकर
लोकमंगल से क्या काम
उससे हमारा पेट
थोड़े ही भरेगा
न ही हमारा नाम
अरबपतियों की लिस्ट में होगा
बुद्धजीवी तो
बाद में भी बना जा सकता है
क्योंकि पैंसे में
विश्व स्तर का बुद्धिजीवी बनाने की
ताकत तो है ही
तो क्यो न पैसा बनाया जाये
इसीलिये………
हमारी भावनाओं को
मार दिया गया है
और इसीलिये
हमारे कन्धों पर जो भार है
उससे हमें दर्द नही होता
क्योकि दर्द के लिये भावनायें चाहिये
हमें दूसरे से क्या लेना
कहीं सूखा पड़े,
कहीं बाढ़ आये
कहीं तूफान आये
कहीं हत्या हो
कहीं लूट हो
कहीं डकैती हो
कहीं बम फूटे
हमारे सीनों मे हलचल नहीं होती
क्योंकि किसी हलचल के लिये
भावनाएँ चाहिये
जो मर चुकी हैं
मरकर दफ़न हो चुकी हैं
हाँ
यदि ज़रूरी हो तो हम
घड़ियाली आँसू बहा सकते हैं
आँसुओं के लिये प्याज़ व ग्लिसरीन
अपनी आँखों में लगा सकते हैं
या और कोई
हार्मलेस हथकण्डा भी आज़मा सकते हैं
क्योंकि हम इसके आदी हैं
पर ऎसा हम हमेशा नही करेंगे
ऎसा हम तभी करेंगे
जब हमारा लाभ होगा
क्योंकि बिना लाभ के
हम कुछ भी नही करते

Monday, September 1, 2008

एक शब्द

आशा ही
मेरे जीवन की परिभाषा है
बस यही शब्द मेरे जीने की आशा है
एक शब्द भी दे सकता है
जीवन
सिखा सकता है
जीवन का राग
भर सकता है
जीवन में अनुराग
और उसमें
फूलों की सुगन्ध बसा सकता है
एक शब्द
एक शब्द ही तो है आशा
जिसके सहारे जीवन चला करता है
हारना भी एक शब्द ही है
जीतना भी एक शब्द ही है
शब्द ही है दुःख और सुख
शब्द ही है हास और रुदन
शब्द ही है जीवन की जीवन्तता
शब्द का अस्तित्व ही अनुभूति है
हमारे होने का
शब्द का अस्तित्व ही प्रतीति है
हमारे जीने का
शब्द ही भय है
शब्द ही साहस
अन्यथा..........
निःशब्द से भला कोई
डरता है
शब्द ही शासन करता है
शब्द से ही शासन चलता है
आशा और विश्वास सब तो शब्द ही हैं


तो..................................
आइये हम
शब्द का संधान करें
शब्द की साधना करें
शब्द की अर्चना करें
शब्द की वन्दना करें
शब्द की आराधना करें

Friday, August 29, 2008

वृक्ष

मैं वृक्ष हूँ
मार्ग की शोभा बढाने वाला वृक्ष
पीकर प्रदूषण को
मै प्राणवायु देता हूँ
मृगशिरा की तपन में
छाया देकर
मै शीतलता का
अनुभव करवाता हूँ
मै वृक्ष हूँ
मुझे तरु भी कहते हैं
मैं तारणहार भी हूँ
सम्पूर्ण प्राणि-जगत् का
ग्रीष्म की धधकती धरिणी से
निकलने वाली लौ को सहकर
आकाश में रौद्र-रूप धारण किये
सवितृ की तपन को सहकर
मैं पथिकों को छाया और विश्राम देता हूँ
मैं वृक्ष हूँ
मुझे विटप भी कहते हैं
पशु-पक्षियों की तो मैं
शरणस्थली हूँ
या यो कहें कि उनका चिर आवास हूँ
पक्षियों का कलरव मेरे लिये संगीत है
उनका चँहचँहाना मेरे हृदय का स्पन्दन है।
मैं वृक्ष हूँ
प्रथम मानव ने भी
मुझको अपना आवास बनाया था
जब उसका कोई सहारा न था
तब मैने ही उसे अपनाया था
पर आज मैं उसी से उपेक्षित हूँ
उसी से पीडित हूँ
मैं वृक्ष हूँ
कम नही है मेरी व्यथा-कथा
यदि कहीं वाल्मीकि जैसा कवि मिल जाता
तो मेरी व्यथा
रामायणी कथा से भी
कारुण्यपूर्ण होती
आज मैं बहुत व्यथित हूँ
मैं वृक्ष हूँ
यहाँ झूठी सान्त्वना देने वालो की
भीड है मेरे सामने
पर मुझे हर सान्त्वना से स्वार्थ की बू आती है
ये विडम्बना है मेरी कि
मेरे अटकते प्राणों को बचाने के लिये
कोई पर्यावरणविद् सामने नही आता
पत्रिकाएँ रिपोर्ट देती हैं
पर कोई नही सुनता
बाली द्वीप के विश्व पर्यावरण सम्मेलन में
हमें प्रदूषण का
लाखों टन उपहार में देकर
वहाँ पहुचने वाले
विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने
हमारी मर रही सन्ततियों की
मौत के मूल कारणों पर
बात करना आवश्यक नही समझा
दो मिनट मौन की कौन कहे
वहाँ भी हमारी समस्या
किसी को गम्भीर नही लगी
क्योकि.......
मैं वृक्ष हूँ
मानवता अनभिज्ञ है इससे
या जानना नही चाहती
कि मेरी मौत
सम्पूर्ण मानवता की मौत है
क्योकि मै उसका सुरक्षा कवच हूँ
बिना कवच के सुरक्षा भला कहाँ होती है
आज मै इस तथाकथित "सभ्य मनवों" से त्रस्त हूँ
इनसे तो अच्छे वो "पैगन" थे
जो हमारी पूजा करते थे
जो हमारे प्रति विनयशील थे
इस "सभ्यता" से मुझे क्या करना
जहाँ मेरे लिये अवकाश नही है
पूजा तो स्वप्न की बात है
वैसे ही जैसे भारत
"सोने की चिडियाँ" कहा जाता था
यह भारतीय जनता के लिये
स्वप्न की बात है
या मात्र किवदन्ती है।
मेरे लिये तो अब सब सपना है
क्योंकि....
मैं वृक्ष हूँ।

Thursday, August 28, 2008

प्रथम नमन

वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस दिव्य दिया का,
जलता रहता शाम-सुबह जो,
मेरे अंधकार पथ पर,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महासलिल का,
जो मेरे जीवन खेतों ,
को नित-नित सींचा करता है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महावायु का,
बहता रहता क्षुद्र हृदय में,
जो अविरल प्राणरूप में,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस वसुधानी का,
जो अपने उर
पर हम सबको,
सदा धरा करती है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महागगन का,
जो अपने मानस-विशाल का
परिचय देता जनमानस को,
बार-सहस्त्र वन्दन है
लक्ष-बार अभिनन्दन है
कोटिशः अर्चन है,
उस जीवनदायिनी माँ का,
उस प्राणवाहिनी माँ का,
उस प्रेमसिंचिका माँ का.......
जो मेरे भौतिक शरीर में,
रक्त-रूप बहा करती है,
तमस्-विहीन मार्ग हेतु
जो नित तिल-तिल जला करती है,
जो अपने असीम प्रेमजल से,
मुझको सींचा करती है....................