Monday, September 8, 2008

पर नदियाँ क्या करे वे तो स्वयं त्रस्त हैं

मुझे रास्ते में
नदियाँ मिलती थीं
हँसती खिलखिलाती
कभी-कभी समुद्र भी मिल जाते थे
इन नदियोँ की ज़्यादती से परेशान
इनकी ढिठाई से वे रहते थे हैरान
उनकी व्यथा-कथा भी कुछ और थी
सदियों से वे सह रहे थे नदियों की
प्रताड़ना
झेल रहे थे अपार वेदना
पर कभी कुछ नही थे कहते
रहते थे हमेशा सहते
पर.............................
जब नदियों ने सारे ज़हाँ का
कूड़ा-करकट
धरती की सारी मैल
बहाकर
समुद्र के सीने पर पटकनें लगीं
तब भी समुद्र कुछ नहीं बोला
उसने सोचा कि
शायद ये नदियाँ
अपने इस ओछी हरकत से
सम्हल जायें
मेरी हालत देख कर
अपनी गतिविधियों से
बाज़ आयें
वह देखता रहा
कुछ दिन और
सुधार के सपने बुनता रहा
कि मेरी प्रेयसी
सुधर जायेगी
और अपने इस
अतिक्रमण से बाज़ आयेगी
वह कुछ दिन देखता.......................
पर जब उसने देखा कि
उसकी सहनशक्ति
ज़बाब दे रही है
और नदी अति कर रही है
तब उसने भी
नदियों द्वारा लाया सारा
कूड़ा-करकट
नदियों को
धरती को
पृथ्वी वासियों को
कल कारखानों के मालिकों को
सरकार को
वापस देने के लिये
वर्षों से अपने
खौलते खून को
वर्षों से अपने
उबलते खून को
धरती पर बहा दिया
नदियों को भी
मिट्टी में मिला दिया
सबको उनके मुँह की
खिला दिया
तोड़कर अपने
गाम्भीर्य को
अपना रौद्र रूप दिखा दिया
उसने यह रूप स्वेच्छा से
नही दिखाया बल्कि
उसे बाध्य किया गया
लोगों द्वारा
लोगों की गतिविधियों द्वारा
नदियों की गतिविधियों द्वारा
पर नदियाँ क्या करे वे तो स्वयं त्रस्त हैं
इसीलिये शायद
समुद्र उन्हें आज तक
क्षमा करता रहा
सारे भार को स्वयं सहन करता रहा ।

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