लो आ गई बसंत, छायी बहार...
प्रकृति कर रही अपनी श्रृंगार,
लाल, हरे और पीले, नीले,
ऋतुओं ने हैं सब रंग बिखेरे।
मंद-मंद चलती बयार,
कल-कल करता ये नद-संसार।
पक्षियों की चहचहाहट में,
सिंह की गरजती दहाड़।
लो आ गई बसंत, छायी बहार...
पेड़ों पर कलियाँ लगीं हैं आने,
हरियाली का कंबल ताने,
आम्रमंजरी की सुगंध से,
भ्रमरों के दिल लगे हैं गाने।
कहीं कोयल की कू-कू है तो,
कहीं पपीहे की पीं-पीं,
ऐसा लगता है मानों,
धरती लगी है मुस्कुराने।
लो आ गई बसंत, छायी बहार...
अगस्त अंक
निरज कुमार सिंह
(छपरा, बिहार)