Sunday, October 26, 2008

किस घड़ी

तुम जान सको मेरी बातों को
वो दिन कहाँ कब आयेगा
तुम समझ सको मेरे जज्बातो को
वो दिन कहाँ कब आयेगा
कब आयेगा दिवस सुहाना
जब सीप से मोती निकलेगा
कब आयेगी घड़ी सुहानी
जब पावन दीप जलेगा
जाने कब पावन दीप
हमें प्रकाश से भरेगा।
बस यही सोचता रहता हूँ कि
ऐसा भी दिन आये कभी
कि जान सको तुम मुझको
सारस्वत प्रतिभा को भी
पर आयेगा कब सुयोग यह
यह प्रतीक्षा की बात है
पूरी हो इस जनम में
या और जनम की कोई
जादुई और तिलिस्म भरी
झिलमिलाती बात है ।
न जाने कब कोयल
सावन में गीत गायेगी खुशी से
भर कर कण्ठ में रागिनी नई
पता नही कब मधुर गीत
मेरे प्यासे कर्णपटों को
सुनायेगी. गुनगुनायेगी वह
जाने कब
किस घड़ी
पता नही
हमें कुछ……..

Friday, October 17, 2008

वे सोते रहे

कुछ हुआ
उनके घर के पास
पर उन्हें भनक तक न लगी
वे आराम से
मखमली गद्दों पर सोते रहे
और बाहर लोग रोते रहे
पर उन्हें भनक तक न लगी
क्योंकि उन चीखों मे
उनके “अपनों” की चीख न थी
जिससे उनको भनक लगती