सितारों पर चढ़ने की ख़्वाहिश लिए बैठी थी एक बादल पर,
बादल में कितने छिद्र थे पता नहीं था अब तक,
तेज हवा आई सब कुछ ले गई,
न ही रहा बादल और न ही रही सितारों की महफिल।
महफिल जो मदहोश थी,
कामयाबी की वो डोर थी,
उजियाला और सुहाना समा था,
निराशाओं का तूफान वहाँ थमा था ।
सितारों की चमक का अन्दाज़ा न था मुझे,
पर आँधियों का भवंडर छोड़ता है किसे,
न ही सितारे न ही चाँदनी,
तन्हाइयों में कोई बात भी कैसे बनती ।
पर मन नहीं माना,
उसे अपना नहीं बल्कि अपनों के लिए था कुछ कर दिखाना,
आत्मा की एक आवाज़ आई,
उसने फिर सितारों पर चढ़ने की गुम्हार लगाई ।
रात दिन एक हुए,
भूख प्यास तृप्त हुई,
एक टिमटिमाती रोशनी आई,
और लगा सितारों की महफिल मेरे दिल में उतर आई ।
जुलाई अंक
हरप्रीत कौर
लुधियाना, पंजाब
3 comments:
bahut sunder rachana...
nice poem ..
nice...as ruhani as you
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