हूँ विशिष्टतम !
गुण निज आकुंचन,
सतत परिवर्तित एकाग्र-चिँतन ।
प्रार्थी प्रेम की
वृक्ष मनोहारी, आकर्षी
रुप-विजन छाँह सघन ।
बैठ तू इस ठाँव
आ क्षणिक विश्राम कर
कि मैँ उर-स्वन, शीतल-भुवन
।
दे झकझोर
कुसुमित पल्लवित यह देह
मिटा ताप
सुन सुगम संकीर्तन ।
तू पाताल, मैँ आकाश
तू क्षर-अक्षर, मैँ दिशाकाश
रच कविता, गाय मन
उन्मन ।
भू से आकाश तक मिलती
रहूँ
रहे न पंथ अपरिचित,गान उन्मन
तन एकल, तान उन्मन ।
मेरे ही स्वर साकार
सिँचित विश्व-उपवन
मैँ प्रेमोद्वेल्लित विशुद्ध- मन ।
तू नील-कुसुम, मैँ मग
तू सुमोँ का सुम, मैँ खग
मिल एक बन; हो
'आलोकवर्द्धन' ।
नवंबर अंक
कहफ़ 'रहमानी'
मुज़फ़्फ़रपुर,बिहार
3 comments:
सुंदर भाषा
सुंदर विषय
सुंदर कथ्य
वाय री योषा!
भू पर तेरा ठौर कहँ?
ह्रदयी तुम कहाँ हो?
आत्मिक संतोष प्राप्त हुए।
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