Tuesday, May 14, 2013

बंदे हम खुद भगवान हैं... विवेकानन्द जोशी



खुदा हमारे दिल में है
बंदे हम खुद भगवान हैं
सबसे सच्चे सबसे अच्छे
दुनिया से हम अंजान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
नन्ही हथेली
पर बड़ी है खुशियों की थैली
मन बड़ा “बलवान” है
बंदे हम खुद भगवान हैं
कद तो छोटा रखते हैं
ऊँचाई मगर छूने का हौसला रखते हैं
मुट्ठी में आसमान है
बंदे हम खुद भगवान हैं
ये तुम जानो
ये वो जाने
ताकत को हमारी पहचानें
हम “कल” के हिन्दुस्तान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
मालिक अपनी तकदीरों के
न फकीर हैं सिर्फ लकीरों के
अपनी किस्मत के “आलाकमान” हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
ना जानें कोई जात-पाँत
होती है भई सबसे बात
हम सब “भारत माँ” की संतान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
मई अंक

विवेकानन्द जोशी
भोपाल, मध्य प्रदेश  



Tuesday, May 7, 2013

भवन की नयी कहानी... राजीव सिंह


भवन की नयी कहानी
थोड़ा काम और लंबी वाणी
अपनी चर्चा लंबी कहानी
दिन भर सोचे लाभ हानि
देखने और दिखाने की वृति
सब खोकर बनायें अपनी कृति
हम और हमारी माया
भौतिक लाभ और सुखमय काया
सेवा की संज्ञा मिलने भर देर
लूट जितना हो देर या सवेर
कोई अगर करे न चर्चा
फँसा दो लगा कर मर्चा
कूद-कूद कर बिछा दो जाल
होगा शांत लूटो भरकर माल...
मई अंक
 राजीव सिंह   

Sunday, May 5, 2013

स्मृतियाँ .... ममता त्रिपाठी



जब उनकी वो धूमल यादें,
खिड़की के झीने परदे से ।
झाँक-झाँककर मुझे देखती,
चिर-उत्सुक अपने नयनों से ॥
तब स्मृतियों का महासमुद्र,
लहर-लहर जग उठता है ।
उर्मि-उर्मि को चूम-चूमकर,
नया झरोखा खुलता है ॥
झीने से झिलमिल अंशुक से,
झीनी यादों का सूत्रपात ।
मधुऋतु की मोहक छवियों पर,
छुप-छुप होता दृष्टिपात ॥
मूक हृदय में छिपी भावना,
मोहकतामय मृदु विस्तार ।
स्मृति-झंकृत हृदय-सितार,
नयनों का मिलन हास-परिहास ।
विह्वल हो इस उदधि मध्य,
प्रतिपल विलसित-विकसित मधुर हास ।
विगत दिनों की करुण मधुरिमा,
वातायन-त्रसरेणु सजा इतिहास ॥ 

Thursday, May 2, 2013

...लेकिन मैं कह नहीं पाया !! (रजनीश कुमार पाण्डेय)


चाहा तो बहुत उसको,
लेकिन कह नहीं पाया॥
बचपन साथ साथ पला,
जवानी साथ साथ बढ़ा।
शायद वो भी चाहती मुझको,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

बचपन उंगली पकड़कर बीता,
जवानी हाथ पकड़कर चलती। 
शायद उसको भी मेरे साथ का था इन्तज़ार,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

आज जब मैं सोचता हूँ बचपन के वो दिन,
आम के छाँव के तले बिताये वो पल।
कहता उससे तो उसे भी आता याद,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

शायद कोई अनजान सा डर था मन में,
जान कर भी उसको, अनजान बनता था उससे।
शायद वो भी पहचान लेती मुझे,
लेकिन मैं कह नहीं पाया।

कमी यही रह गयी मुझमें कि,
रिश्ते निभाने में रह गया पीछे।
खुद आगे बढ़कर हाथ थामता उसका,
तो आज बात कुछ और ही होती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

कहीं न कहीं उसकी भी गलती थी,
क्या मुझे वह नहीं जानती थी?
वो कह दे तो कह दे वरना,
हम कभी एक ना हो पायेंगे,
चाहते तो हम भी हैं उसको बहुत,
लेकिन ये बताये कौन उसको।
चाहतें शायद नया इतिहास रचती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

मई अंक