चाहा तो बहुत उसको,
लेकिन कह नहीं पाया॥
बचपन साथ साथ पला,
जवानी साथ साथ बढ़ा।
शायद वो भी चाहती मुझको,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
बचपन उंगली पकड़कर बीता,
जवानी हाथ पकड़कर चलती।
शायद उसको भी मेरे साथ का था इन्तज़ार,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
आज जब मैं सोचता हूँ बचपन के वो दिन,
आम के छाँव के तले बिताये वो पल।
कहता उससे तो उसे भी आता याद,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
शायद कोई अनजान सा डर था मन में,
जान कर भी उसको, अनजान बनता था उससे।
शायद वो भी पहचान लेती मुझे,
लेकिन मैं कह नहीं पाया।
कमी यही रह गयी मुझमें कि,
रिश्ते निभाने में रह गया पीछे।
खुद आगे बढ़कर हाथ थामता उसका,
तो आज बात कुछ और ही होती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
कहीं न कहीं उसकी भी गलती थी,
क्या मुझे वह नहीं जानती थी?
वो कह दे तो कह दे वरना,
हम कभी एक ना हो पायेंगे,
चाहते तो हम भी हैं उसको बहुत,
लेकिन ये बताये कौन उसको।
चाहतें शायद नया इतिहास रचती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥
मई अंक
4 comments:
बहुत सुन्दर रजनीश जी...दिल को छूने वाली कविता है आपकी.. आशा है आगे भी आपकी रचनाएं पढनें को मिलेंगी।
sir.... mai to bas kuch sochte sochte likh diya... kavyagat asuddhiya ho skti hai.. jiske liye mai kshamaprarthi hu... ye maine apne zindagi me dusri baar kisi kavita ki rachana ki hai.....
कुछ कह न पाने का भी अपना सौन्दर्य है । पृथक् स्मृतियाँ है । इसमें दु:ख का भी आनन्द उठा सकने की क्षमता है । हर बात बैखरी तक जाये आवश्यक नहीं ।
Thik kaha apne mamtaji.... ankahi baato me jo anand aur utsukata hai, vo kahi hui baato me nhi hai.....
Post a Comment