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I do not know how to post my poem afesh and so posting it in comments.Plz help brijinder"Sagar" एक और बेचारी
आत्म सम्मान व मूल्यों को अपने स्वंय दे हलाहल कर अनुसरण - अपने परिवेश की नारी का नई परिभाषाओं से अलंकृत स्वंय को बरगलाती अर्थहीनता को जीने लगी - वो भी कई बार देखी कृष्ण को कर तिरस्कृत दुर्योधन के गले झूलती "बेचारी द्रोपदी " ---------------------------
I am sending few of my poems for publication.I declare that these are my original poems. Regrads brijinder"Sagar"
वर्तमान भारत
तब हमें पढाया जाता था कि मंगोल बर्बर थे कि मुग़ल बर्बर थे कि अँगरेज़ बर्बर थे
अब हमें दिखाया जाता है शहर शहर मोहल्ले मोहल्ले कि हमारी बर्बरता का तो सानी नहीं कोई कि शर्मसार हैं हम अपने अतीत पर अपने उपनिषदों पर ,बुद्ध पर, कबीर पर
जलते हुए घरों और सड़ती हुई लाशों के मध्यस्त भारत मेरे का वर्तमान सभ्य हो रहा है ------------------------------ लोग
जीवन की चक्रव्यूह-रचना भेदने में असक्षम अभिमन्यु भी नहीं कि भीतर ही जा सकें इसलिये मोक्ष की मृग तृष्णा में मोक्ष के अर्थ विकृत करते जीवंता की परिधि से बाहर जीते हुये लोग
------------------------- भीढ़ और पत्थर में नाता बहुत पुराना दोस्तों इसलिये ज़रूरी हो गया ज़ुर्रत दिखाना दोस्तों
इक ख्वाब का परिणाम है चाँद पर भी पहुंचना मिथहास को भी संभव है इतिहास बनाना दोस्तों ... कोई तो उठे भीढ़ की मानसिकता के ख़िलाफ़ किसी को तो अब है यह सवाल उठाना दोस्तों
आसां नहीं है माना हमने अपने ही पैरों का सफ़र ख़ुद को मगर है लाज़मी खुद से मिलाना दोस्तों -----------------
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5 comments:
सुन्दर भाव
I do not know how to post my poem afesh and so posting it in comments.Plz help
brijinder"Sagar"
एक और बेचारी
आत्म सम्मान व मूल्यों को अपने
स्वंय दे हलाहल
कर अनुसरण -
अपने परिवेश की नारी का
नई परिभाषाओं से अलंकृत
स्वंय को बरगलाती
अर्थहीनता को जीने लगी -
वो भी
कई बार देखी
कृष्ण को कर तिरस्कृत
दुर्योधन के गले झूलती
"बेचारी द्रोपदी "
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I am sending few of my poems for publication.I declare that these are my original poems.
Regrads
brijinder"Sagar"
वर्तमान भारत
तब हमें पढाया जाता था
कि मंगोल बर्बर थे
कि मुग़ल बर्बर थे
कि अँगरेज़ बर्बर थे
अब हमें दिखाया जाता है
शहर शहर मोहल्ले मोहल्ले
कि हमारी बर्बरता का तो सानी नहीं कोई
कि शर्मसार हैं हम अपने अतीत पर
अपने उपनिषदों पर ,बुद्ध पर, कबीर पर
जलते हुए घरों और सड़ती हुई लाशों के मध्यस्त
भारत मेरे का वर्तमान सभ्य हो रहा है
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लोग
जीवन की चक्रव्यूह-रचना
भेदने में असक्षम
अभिमन्यु भी नहीं
कि भीतर ही जा सकें
इसलिये
मोक्ष की मृग तृष्णा में
मोक्ष के अर्थ विकृत करते
जीवंता की परिधि से बाहर जीते हुये लोग
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भीढ़ और पत्थर में नाता बहुत पुराना दोस्तों
इसलिये ज़रूरी हो गया ज़ुर्रत दिखाना दोस्तों
इक ख्वाब का परिणाम है चाँद पर भी पहुंचना
मिथहास को भी संभव है इतिहास बनाना दोस्तों
...
कोई तो उठे भीढ़ की मानसिकता के ख़िलाफ़
किसी को तो अब है यह सवाल उठाना दोस्तों
आसां नहीं है माना हमने अपने ही पैरों का सफ़र
ख़ुद को मगर है लाज़मी खुद से मिलाना दोस्तों
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आशावादी भाव का सुंदर प्रस्तुतिकरण हुआ है | बधाई |
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