Monday, July 18, 2011

मानव और प्रकृति


प्रकृति-प्रज्ञा-शिशु मानव।
करता आविष्कार नवल-नव।
दुःसाहस तो इसका देखो,
छीन लिया धरती का कलरव॥
गहन तरु-लता नष्ट-भ्रष्टकर,
वसुधा विपिन-विहीन किया ।
कीट-पतंग औ सरीसृप संग,
खग-मृग-आश्रय छीन लिया॥
सिंह-शावकों का शैशव छीना,
मिलकर खूब शिकार किया।
जंगम-स्थावर प्रकृति का,
हो व्यसन-अन्ध संहार किया॥
लुप्त हो गयीं कई प्रजातियाँ,
कई पर संकट छाया है।
पारितन्त्र को तहस-नहस कर,
आखिर इसने क्या पाया है?

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी प्रस्तुति

lata said...

bahut shaandar

Saru Singhal said...

No words can describe how beautiful it is. It's very nice to read a well drafted Hindi poem.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

मूक प्राणियों के प्रति गहरा लगाव अद्भुत-शब्द -चयन द्वारा .......वाह.....

अभिषेक मिश्र said...

महत्वपूर्ण विषय को कविता के माध्यम से बखुबी उठाया है आपने. बधाई.

Unknown said...

शब्द नहीं तारीफ के लिए