जब उनकी वो धूमल यादें,
खिड़की के झीने परदे से ।
झाँक-झाँककर मुझे देखती,
चिर-उत्सुक अपने नयनों से ॥
तब स्मृतियों का महासमुद्र,
लहर-लहर जग उठता है ।
उर्मि-उर्मि को चूम-चूमकर,
नया झरोखा खुलता है ॥
झीने से झिलमिल अंशुक से,
झीनी यादों का सूत्रपात ।
मधुऋतु की मोहक छवियों पर,
छुप-छुप होता दृष्टिपात ॥
मूक हृदय में छिपी भावना,
मोहकतामय मृदु विस्तार ।
स्मृति-झंकृत हृदय-सितार,
नयनों का मिलन हास-परिहास ।
विह्वल हो इस उदधि मध्य,
प्रतिपल विलसित-विकसित मधुर हास ।
विगत दिनों की करुण मधुरिमा,
वातायन-त्रसरेणु सजा इतिहास ॥
1 comment:
bahut sundar kavita hai... dhanyavad kaviyitriji........
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