Wednesday, January 17, 2018

आयशा: सपना मांगलिक

आयशा
वो कहते हैं कि औरत
कभी हो नहीं सकती बच्ची 
अरे वो तो महज एक 
जमीन है कच्ची 
जिसपे जो चाहे ,जब चाहे
जोते हल,और चुक जाए तो दे दे अन्य किसी मेहनतकश को लीज पर 
या उगाता जाए फसल पर फसल
वो साठ की उम्र में भी पुरुष 
तू छः की नन्ही सी उम्र में भी औरत
तू नहा धोकर भी रस्ते की ख़ाक,नापाक
वो तेरे जिस्म से बुजु कर भी कहलाता है  पाक
वो पढ़ेगा अपने फायदे के लिए आयतें 
मगर तुझको ताउम्र करनी है
इस जल्लाद की इबादतें
उसके लिए बख्शी जाएंगी बहत्तर हूर
छीन लिए जाएंगे तुझसे 
तमाम सपने,हसरतें और नूर 
वो ढांप देगा तेरी पहचान स्याह हिजाब के पीछे
छुपायेगा वहशियत अपनी 
एक  किताब के नीचे
कर तुझे हलाला कभी सुनाकर तलाक
भोगेगें हर तरह से जिस्म तेरा
अल्लाह के ये बन्दे चालाक
बहुत हुआ आयशा तू बढ़ आगे 
रौंद डाल इस गुनहगार मरद जात को
थाम ले हाथ में कलम और किताब को
छोड़ इन झूठे सभी रस्म ओ रिवाज को
ख़ौफ़ज़दा करती जेहादी आवाज को
देख वो आफताब जो तेरा भी है 
तेरी है शब् ,तेरा सवेरा भी है 
नहीं गर्दिश , सितारे  सारे आसमान हैं 
जीती जागती  हाँ तू भी इंसान है
 तुझसे ही जहां यह ,तू ही जहान है 
तेरी भी एक अलग ,खुद की पहचान है। 
तू बेजान नहीं आयशा 
नहीं ,नहीं ,नहीं 
धड़कता है  एक दिल तुझमे भी 
बसती तुझमे भी जान है 
-
सपना मांगलिक

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