Saturday, January 20, 2018

भिखारी मत कहो ...दीपक सक्सेना

मांगती थी एक रुपया गोद में बालक लिए ,
बालिका थी भाई को स्नेह माता का दिए
चिपकाये माँ जाये को पोंछे आंसू ले चीथड़ा,
प्यार पाने की उम्र में करती कितना जी कड़ा

नाक बहती चाटता बालक स्वाद ले सुड़कता ,
कन्धा गीला कर बहन के गंदे बाल में सुबकता
कितनी हिकारत भरके नज़रें रोज़ उसको झिदकतीं,
भूलकर अपमान फिर भी रोती, मांगती, सिसकती

शिकायत नहीं माँ में कोई ज़हालत विरसे में मिली ,
बमुश्किल तन जो ढक सके लिपटी झिन्गोले में चली
बदरंग कम्बल में लपेटे बच्चे को पुचकारती ,
बाबु, सेठ संबोधनों को चपलता से मनुहारती

अल्लाह का दे वास्ता बजरंगबली की दुहाई ,
भजन शिर्डी साईं के माता की भेंट सुनाई
कभी रेल में बाज़ार में मंदिर सिनेमा हाल में,
शामो सहर करती सफ़र ज़िन्दगी की चाल में

धुप में बरसात में जूझे छिपाए लाल को,
विचलित रहे न आंधी तूफाँ जैसे हराए काल को
गन्दा कटोरा घिस गया फूटी जो किस्मत दिन ब दिन,
हर दिन नए इंसान दिखते अफ़सोस कर पल एक छिन

फ़िल्मी धुन जो नित नयी गाकर सुनाये इतने उमंग से ,
बालक भी नाचे साथ उसके चिपटा रहे जो अंग से
तारतम्य चलता रहा ज़िन्दगी घिसटती रही ,
दास्ताँ भाई बहन की मंथर गति बढती रही

क्या दूं उसे यह सोचकर विचलित हुआ है मन बड़ा,
 बचपन नहीं जो पास उसके क्या दे सकूँगा सोचूं खड़ा
बचपन भुलाकर कितने बच्चे सीधे बड़प्पन में पले
दो पांच रूपया दे हम सभी दाता की श्रेणी में जुड़े


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