Friday, July 31, 2020

मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र : सत्य रंजन

जीवन मेरा है ऊहापोश, सुख की है बस छाया मात्र ।

 
सुख की मेरी कल्पना अलग, हूँ पूर्वजो के मत में कुपात्र।
 
पूर्वजो ने गुंथे संयम के मिट्टी, बोये उसमे संतुष्टि के बीज,
फूल खिले समृद्धि के उसमे, जिस से महक रहा मेरा अतीत।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मुझ में नहीं है संयम के पुट, संतुष्ट होना है मेरे लिये मृत समान,
इन भावो से भी है बितृष्णा, लोलुप-लालसा मेरे आराध्य भगवान।
 
तब सम्बन्धो में थी एक अजब ही होड़, अतिथि का था अत्यंत मान,
आर्थिक बिपन्नता में भी थे सहिष्णु, जिन्दा था उनका आत्मसम्मान ।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
सम्बन्धो को सुध कौन रखे, माता पिता भी अब मेरे अतिथि,
बस थोड़ा और करता करता, आपने शरीर को बना ली है दधीचि।
 
आँखों में पसरी थी दूर तक खुशी, प्रेम से था आच्छादित मन,
छोटे छोटे खुशियों से भर के आलाह्दित कर दिया मेरा बचपन।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मेरे सुख की परिभाषा अलग, भौतिक सुख ही मेरा जीवन,
कोलाहल भर के मस्तिष्क में, घट-घट बेतहाशा ढूंढ़ता हु संजीवन।
 
पूर्वजो ने बांधे ग्रहो के फेर, कभी राहु तो कभी बृहस्पति की दशा,
सभ्यक ज्ञान से मंगल को मनाया, शांत किया शनि की भी महादशा।
 
अंतरकलह ही बस मेरी दशा, चिंता का भी हूँ प्रिय पात्र,
मधुमेह, रक्तचाप जैसे जीवनसाथी, ऋणदोष ही अब मेरा गोत्र।
 
क्योंकि………….
 
मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र ।
 

सत्य रंजन

जुलाई अंक 

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