मजदूरों की मजबूरी का अजीब तमाशा बनाया जा रहा है।
जिन्होंने शहर बनाया
आज उन्हें सड़कों पर चलाया जा रहा है।
तपती धूप, सिकती सड़कें, मासूम चेहरे
आंखों से देश का स्वाभिमान बहाया जा रहा है........
लाशों का ढेर लगा है उस ओर
और यहां केवल बवाल बनाया जा रहा है।
सरहदें तो बची ही नहीं उनके लिए,
बस परिवार कीमती,
हजारों मीलों की दूरी और
दाव अपनी जान का लगाया जा रहा है।
साथ में नन्हे कदम,
भूख से हर पल आस टूटती,
फिर भी घर पहुँचने का सपना
आँखो में सजाया जा रहा है।
देश की ताकत, सड़कों पर,
पटरीयो पर लाचार पडी थी ,
और वहां अर्थव्यवस्था को दुगनी
करने का अनुमान लगाया जा रहा है।
पहले किसान मरते थे
आपदा के समय,
आज मजदूरों का समर्पण
आहुति सा चढाया जा रहा है,
मजदूरों की मजबूरी का,
अजीब तमाशा बनाया जा रहा है.......
भूमिका शिवहरे
जुलाई अंक
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