काव्यरचना
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Tuesday, December 26, 2023
एक परिचय : दीक्षा राणा
Wednesday, November 25, 2020
यादों का महल : डॉ. स्वाति जैन
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
दीवारों पर टँगी तस्वीरों से मन
सच-झूठ के फर्क को भूल जा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
प्रश्नों के भँवर में हम रोज़ गो
धोके की परत को रोज़ हटाते हैं..
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
भावनाओं के कटघरे में रोज़ ख
खुद ही सज़ा हम रोज़ फिर सुना
खुद ही सज़ा हम रोज़ फिर सुनाते हैं ....
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
ये होता वो होता...इस दलदल में
सही गलत के मायाजाल से रोज़ खुद
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
खुद की ही सच्चाई हम बार-बार सा
रिश्तों की डोर बार-बार सुलझा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
सपने हज़ारो हम यही बुनते च
मुस्कुराहटों को यूँ ही सं
अपने परायों का फर्क बार-बा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
ये सांझ का साया है…..
या अंधेर- रात की आहट..
या फिर सुनहरी धुप की चाहत
हम ना समझ पाते हैं .. .
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
नवंबर अंक
डॉ. स्वाति जैन
Monday, November 23, 2020
इंतज़ार :मुकेश कुमार मिश्र
सर्दी की रात
Friday, November 13, 2020
दीपावली पर एक प्रदीप-सरोजनी पाण्डेय
आओ एक प्रदीप वह बालें, जो वसुधा के तम हर ले !
पीड़ित- विकल- दग्ध प्राणों को करुणा-कर( किरण) से सहला दे,
कुछ पल को ही कुछ क्षण को ही
उनकी पीड़ा कम कर दे !
आओ एक प्रदीप वह बालें जो वसुधा के.....
-जो गर्वित हैं, मद में डूबे,
मन में केवल अहम् भरा,
वह भी समझें पीर पराई
उष्मा से मन पिघला दे !!!
आओ एक प्रदीप वह बालें
पथ से भ्रष्ट ,वक्र -पथगामी,
जो विवेक से हीन हुए,
सच्ची राह उन्हें दिखला कर चलने को प्रेरित कर दे!!
आओ एक प्रदीप वह बालें जो वसुधा के
जो अबोध है और अज्ञानी
नहीं समझ है दुनिया की
देकर ज्योति ज्ञान की उनको
जग- मग- जग प्रकाश भर दे
आओ एक प्रदीप वह बालें जो, वसुधा के तम हर लें ।।।।।।
सरोजिनी पाण्डेय
उत्साह बनाए रखना है...!-यमुना धर त्रिपाठी
पारिजात - सरोजिनी पाण्डेय
कहते हैं पारिजात स्वर्ग से आया है ,
मेरे बगीचे के वृक्ष ने मुझे हर बरस यह याद दिलाया है
शीत से ग्रीष्म तक मानो यह गहरी नींद सोता है
वर्षा की रिमझिम से सिहर कर उठता है,
शरद के आने पर यह पूर्ण चैतन्य होता है
स्वर्ग में शायद सदा शरदका ही मौसम रहता है ?
वर्षा से धुल -पुँछ यह नव -पत्र पहनता है
मन में भर नव-उमंग ,नई कलियों से सजता है,
छूट गई है शायद इसकी प्रिया स्वर्ग में ही उसकी प्रतीक्षा में तत्पर हो उठता है
अंजुली में भरे सफेद फूलों के गजरे,
संध्या सेही प्रियतमा की बाट यह जोहता है,
शरद भर रहता है यही हाल इसका
परन्तु!
नित्य ही प्रतीक्षा का फल शून्य होता है!
भर जाता है हृदय जब विरह की असह्य वेदना से ,भोर में यह दग्ध प्रेमी रक्त के आंसू रोता है!
स्वर्ग से क्षिप्त हुए इस बेचारे पादप का पृथ्वी पर प्रतिवर्ष यही हाल होता है,
धरती पर बिखरे देख हरसिंगार के ये फूल प्रेमी की पीड़ा का अनुमान होता है
स्वर्ग में बैठी विरहिणी -मानिनी सखी के लिए यह विरही प्रेमी हर निशिमें रोता है।
कभी-कभी कोई करुणा से द्रवित हो ,यह बिखरे फूल उठा झोली में भरता है ,
और उन फूलों को देव को समर्पित कर ,चरणों में उसके श्रद्धानत होता है
सोचती हूं देख कर यह ,काश !ऐसा हो जाए,पारिजात का निवेदन फलीभूत होजाए,युग युगांतर की प्रतीक्षा संपूर्ण हो जाए,
इस सनातन प्रेमी को इसकी प्रिया मिल जाए।।।।।
सरोजिनी पाण्डेय
शरद पूर्णिमा तब और अब- सरोजिनी पाण्डेय
कल जब शरद पूर्णिमा के शुभ संदेशों का मौसम छाया,
मुझे अपने बचपन के शरद पूनम का दिन याद आया,
मां पीतल की चमचमाती बटलोईमें दूध चढ़ाती थी
चावल मिश्री मेवे डाल मधुर क्षीरान्न बनाती थी
इलायची केसर की सुगंध हमें खूब ललचाती थी,
परंतु दिन में उस खीर का रस रसना कहां ले पाती थी !!!
संध्या समय सूर्यास्त के बाद जब हवा ठंडी हो जाती थी,
खीरसे भरी पतीली छत पर ले जाई जाती थी,
खीर का लालच में छत पर खींच ले जाता था कीड़े ,भुनगों से खीर की रक्षा का काम हमसे करवाया जाता था,
हम भी इस काम में मुस्तैदी से लग जाते थे कभी पंखा ,कभी हाथ ,और कभी अखबार हिलाकर खीर को बचाते थे,
इंतजार रहता था चांद के आकाश में ऊपर चढ़ आने का ,
अपनी किरणें को खीर बरसा उसे अमृत बनाने का,
दूसरी तरफ पिताजी कुछ और भी समझाते थे ,
धवल शरद -चंद्रिका में हमसे धार्मिक पुस्तक पढ़वाते थे,
बताते थे पिता -श्री *"यह शरद चांदनी वरदायी है ,
तुम्हारे नेत्रों की ज्योति बढ़ाने पृथ्वी पर आई है
जो इसमें पढ़ेगा, सशक्त नेत्र पाएगा ,
विद्या का सच्चा अर्थ उसको समझ में आ जाएगा ,
योगेश्वर कृष्ण की कृपा उस पर बरसेगी ,
सकारात्मक भावना सदा हृदय में सरसेगी
खीर के लोभ में हम यह सब कर गुजर जाते थे,
तब कहीं जाकर देर रात गए अमृतमय क्षीर का आनन्द ले पाते थे।
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बचपन की याद कर ,कल मैंने भी खीर बनाई शरद -चंद्रिका से बरसता अमृत रस मिलाने को, छत के अभाव में ,उसे बालकनीमें रखआई ,
पर हाय रे विडंबना !!!ऐसा कुछ न हो पाया प्रदूषण के कारण उजला चांद निकल ही न पाया ,
शरद -पूर्णिमा का वह शुभ -निर्मल -मधुर -मदिर चंद्र ,
जिसे देखकर आनंद मग्न हो गए थे, मोहन, श्री कृष्ण चंद्र ,
किया था यमुना तट पर मोक्षदायी *महारास* उस दिन पूरी कर दी थी हर गोपीका के मन की आस ज कर पछताए!
त्योहार का सच्चा अर्थ तिरोहित होगया।
अब तो केवल संदेश भेजना- पाना बच गया।।।।