Wednesday, November 25, 2020

यादों का महल : डॉ. स्वाति जैन

 यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है

दीवारों पर टँगी तस्वीरों से मन बहलाते हैं...

सच-झूठ  के  फर्क  को  भूल  जाते  हैं ...

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!!!!!!!

 

प्रश्नों के भँवर में हम रोज़ गोते खाते हैं...

धोके की परत को रोज़ हटाते हैं...

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!!!!!!

 

भावनाओं के  कटघरे  में  रोज़  ड़े  पाते  हैं ...

खुद ही सज़ा हम  रोज़  फिर  सुनाते  हैं ....

खुद ही सज़ा हम रोज़ फिर सुनाते हैं ....

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!!!!

 

ये होता वो होता...इस दलदल में रोज़ फ़स्ते जाते  हैं......

सही गलत के मायाजाल से रोज़ खुद को सताते हैं.....

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!!!

 

खुद की ही सच्चाई हम बार-बार साबित करते  हैं...

रिश्तों की  डोर  बार-बार सुलझाते  हैं ...

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!

 

सपने  हज़ारो  हम  यही  बुनते  ले  जाते  हैं ....

मुस्कुराहटों  को  यूँ  ही  संजोते  जाते  हैं ....

अपने  परायों  का  फर्क   बार-बा भूल  जाते  हैं ....

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!

 

ये सांझ का साया है…..

या  अंधेररात  की  आहट..

या  फिर  सुनहरी  धुप  की  चाहत ...

हम  ना समझ  पाते  हैं   .. .

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!

यादों के महल में हम हर रोज़ जाते है!!!!!


नवंबर अंक 

डॉ. स्वाति जैन 


Monday, November 23, 2020

इंतज़ार :मुकेश कुमार मिश्र

 सर्दी की रात 

कमरे में घुप्प अंधेरा
बदन पर कुछ कपड़े
और भारी लिहाफ...

कांच की खिड़की से
रिश्तों के
टूटते तारे नजर
आते हैं...

देखो.. न!!!

चांद भी चलते हुए 
खिड़की पर आ गया
चांदनी कमरे में बिछ गई
दीवार पर
साफ साफ 
तुम्हारे
वादे दिखने लगे हैं
आज बस कल से एक ज्यादा....

अमावस से पूर्णिमा तक
चाँद के साथ ही
बढ़ते जाते हैं तुम्हारे वादे 
फिर चाँद जैसे जैसे
कम होता गया
वैसे तुम्हारा आना भी....

काश!!
तुम्हारी गति चाँद सी होती
रोज मिलते तो सही
जाते भी
तो फिर आने के लिए..... 

नवंबर अंक 
मुकेश कुमार मिश्र

Friday, November 13, 2020

दीपावली पर एक प्रदीप-सरोजनी पाण्डेय


 आओ एक प्रदीप वह बालें, जो वसुधा के तम हर ले !

 पीड़ित- विकल- दग्ध प्राणों को करुणा-कर( किरण) से सहला दे,

 कुछ पल को ही कुछ क्षण को ही

 उनकी पीड़ा कम कर दे !

 

आओ एक प्रदीप वह बालें जो वसुधा के..... 


-जो गर्वित हैं, मद में डूबे,

 मन में केवल अहम् भरा,

 वह भी समझें पीर पराई

उष्मा से मन पिघला दे !!!

 

आओ एक प्रदीप वह बालें

  

 पथ से भ्रष्ट ,वक्र -पथगामी,

 जो विवेक से हीन हुए,

 सच्ची राह उन्हें दिखला कर चलने को प्रेरित कर दे!!

    आओ एक प्रदीप वह बालें जो वसुधा के

     

जो अबोध है और अज्ञानी

 नहीं समझ है दुनिया की

  देकर ज्योति ज्ञान की उनको

  जग- मग- जग प्रकाश भर दे

  आओ एक प्रदीप वह बालें जो, वसुधा के तम हर लें ।।।।।।

सरोजिनी पाण्डेय

उत्साह बनाए रखना है...!-यमुना धर त्रिपाठी

 


उत्साह बनाए रखना है,
सुख या दुःख हर हाल में,
टेढ़ी-तिरछी चाल में,
भूलोक या पाताल में,
अभी और इस साल में,
समृद्ध या बदहाल में,
गुस्से में या आम बोल-चाल में,
निर्धनता या मालामाल में,
स्वयं हृदय में रखना है।
उत्साह बनाए रखना है।।

दुनिया के कण-कण में,
अनवरत या एक क्षण में,
शांतिकाल में या रण में,
समाज या फिर मरुवन में,
सघन क्षेत्र या निर्जन में,
अपने तन में या मन में,
आज या फिर जीवन मे,
यह बात बताए रखना है।
उत्साह बनाए रखना है।।

यमुना धर त्रिपाठी

पारिजात - सरोजिनी पाण्डेय

 कहते हैं पारिजात स्वर्ग से आया है ,

मेरे बगीचे के वृक्ष ने मुझे हर बरस यह याद दिलाया है 

शीत से ग्रीष्म तक  मानो यह गहरी नींद सोता है

वर्षा की रिमझिम से सिहर कर उठता है,


शरद के आने पर यह पूर्ण चैतन्य होता है 

स्वर्ग में शायद सदा शरदका ही  मौसम रहता है ?


वर्षा से धुल -पुँछ यह नव -पत्र पहनता है 

मन में भर नव-उमंग ,नई कलियों से सजता है,


छूट गई है शायद इसकी प्रिया स्वर्ग में ही उसकी प्रतीक्षा में तत्पर हो उठता है 


अंजुली में भरे सफेद फूलों के गजरे,

 संध्या सेही प्रियतमा की बाट यह जोहता है,

 

 शरद भर रहता है यही हाल इसका 

  परन्तु!

  नित्य ही प्रतीक्षा का फल शून्य होता है!

   

भर जाता है हृदय जब विरह की असह्य वेदना से ,भोर में यह दग्ध प्रेमी रक्त के आंसू रोता है!

    स्वर्ग से क्षिप्त हुए इस बेचारे पादप का पृथ्वी पर प्रतिवर्ष यही हाल होता है,

     धरती पर बिखरे देख हरसिंगार के ये फूल प्रेमी की पीड़ा का अनुमान होता है 

     स्वर्ग में बैठी विरहिणी -मानिनी सखी के लिए यह विरही प्रेमी हर निशिमें रोता है।

  

 कभी-कभी कोई करुणा से द्रवित हो ,यह बिखरे फूल उठा झोली में भरता है ,

   और उन फूलों को देव को समर्पित कर ,चरणों में उसके श्रद्धानत होता है

    सोचती हूं देख कर यह ,काश !ऐसा हो जाए,पारिजात का निवेदन फलीभूत होजाए,युग युगांतर की प्रतीक्षा संपूर्ण  हो जाए,

     इस  सनातन प्रेमी को इसकी प्रिया मिल जाए।।।।।

सरोजिनी पाण्डेय 

शरद पूर्णिमा तब और अब- सरोजिनी पाण्डेय

कल जब शरद पूर्णिमा के शुभ संदेशों का मौसम छाया,

 मुझे अपने बचपन के शरद पूनम का दिन याद आया,

  मां पीतल की चमचमाती बटलोईमें दूध चढ़ाती थी

   चावल मिश्री मेवे डाल मधुर क्षीरान्न बनाती थी

   इलायची केसर  की सुगंध हमें खूब ललचाती थी,

  परंतु दिन में उस खीर का रस रसना कहां ले पाती थी !!!

  संध्या समय सूर्यास्त के बाद जब हवा ठंडी हो जाती थी,

   खीरसे भरी पतीली छत पर ले जाई जाती थी,

   खीर का लालच में छत पर खींच ले जाता था कीड़े ,भुनगों से खीर की रक्षा का काम हमसे करवाया जाता था,

    हम भी इस काम में मुस्तैदी से लग जाते थे कभी पंखा ,कभी हाथ ,और कभी अखबार हिलाकर खीर को बचाते थे,

     इंतजार रहता था चांद के आकाश में ऊपर चढ़ आने का ,

     अपनी किरणें  को खीर बरसा उसे अमृत बनाने का,

   दूसरी तरफ पिताजी कुछ और भी समझाते थे ,

      धवल शरद -चंद्रिका में हमसे धार्मिक पुस्तक पढ़वाते थे,

       बताते थे पिता -श्री *"यह शरद चांदनी वरदायी है ,

       तुम्हारे नेत्रों की ज्योति बढ़ाने पृथ्वी पर आई है 

       जो इसमें पढ़ेगा, सशक्त नेत्र पाएगा ,

       विद्या का सच्चा अर्थ उसको समझ में आ जाएगा ,

         योगेश्वर कृष्ण की कृपा उस पर बरसेगी ,

         सकारात्मक भावना सदा हृदय में सरसेगी

 

खीर के लोभ में हम यह सब कर गुजर जाते थे,

  तब कहीं जाकर देर रात गए अमृतमय  क्षीर का  आनन्द ले पाते थे।

**  **  **  **  **  **  **


बचपन की याद कर ,कल मैंने भी खीर बनाई शरद -चंद्रिका से बरसता अमृत रस मिलाने को, छत के अभाव में ,उसे बालकनीमें रखआई ,


पर हाय रे विडंबना !!!ऐसा कुछ न हो पाया प्रदूषण के कारण उजला चांद निकल ही न पाया ,

शरद -पूर्णिमा का वह शुभ -निर्मल -मधुर -मदिर चंद्र ,

 जिसे देखकर आनंद मग्न हो गए थे, मोहन, श्री कृष्ण चंद्र ,

 किया था यमुना तट पर मोक्षदायी  *महारास* उस दिन पूरी कर दी थी हर गोपीका के मन की आस ज कर पछताए!

  त्योहार का सच्चा अर्थ तिरोहित होगया।

  अब तो केवल संदेश भेजना- पाना बच गया।।।।

जागरण गीत - हर्षिता सिंह

सूर्य दीप्ति को तेज हीन 

जब करने लगे श्यामल बदरी 
जब बिना चन्द्र ही यात्रा में
निकल पड़ी हो विभावरी ।

लिखते जाना तुम अविरत 
दिवा के आगमन गीत  
ओज तेज के परि पूरक 
चिर शक्ति के जो हों प्रतीक ।

जो राम सेतु के पत्थर हों 
भव सागर में भी ना डूबें 
हों अटल भक्ति प्रहलाद की वो 
जो जलकर के भी ना छूटें ।

आकाशगंगा में विद्यमान 
ध्रुव तारे जैसे दीप्तिमान 
वो गीत बने रथ का पहिया 
घायल अभिमन्यु का स्वाभिमान ।

सूर्य के सातों अश्वों से 
जो तीव्र, धवल, बलशाली हों 
वो गीत हों लाठी का संबल 
जिनसे जन्मी आज़ादी हो ।

द्वेष से जब सृष्टि में 
अनुराग गौड़ हो जाएगा 
वो गीत तब गांडीव बन 
खुद पर विश्वास सिखाएगा ।

संघर्ष तरू की मंजरी से 
मांग कर के बल लिखना 
वातायन में पथ भूला है आज 
उस गीत का तुम कल लिखना ।

तिरस्कार से आहत हो 
तुम मौन ना होना आज प्रिए 
नभ से पर्वत तक गूंजे जो 
उस गीत का हो निर्माण प्रिए । 


  हर्षिता सिंह 
रायबरेली

इन्हें सम्मान दें...! -यमुना धर त्रिपाठी

 वंश को आगे बढ़ाती है,

घर की लक्ष्मी कहलाती है।
सबकी इज्जत करती है,
मां-बाप की सेवा करती है।।
पति को पिता की संज्ञा-
दिलवाकर खुशी प्रदान करती है।
प्रसव के समय मौत को भी,
चुनौती देकर मुस्कुराती है।।
अपने कर्तव्य का पालन कर,
परिवार की नींव रखती है।
अपने माँ-बाप को छोड़कर,
अपने पति के घर जाती है।।
अपने व्यवहार से पति का-
समाज मे सम्मान बढ़ाती है।
पृथ्वी की तरह धैर्यशाली है,
वह दिखने में आस्थावाली है।
वह संस्कारित दिखती सर्वथा है,
वह परम्परा है, और प्रथा है।।
घिसती और निखरती है,
जैसा साँचा वैसा ढलती है।
घर को रोशन करती है,
अक्सर स्वयं पिघलती है।।
मेहनत करने को आमादा है,
सब खुश रखने का इरादा है।
इसीलिए इनको मान दें,
सबसे अधिक इन्हें सम्मान दें।।

-यमुना धर त्रिपाठी

आज का अर्जुन - आयुष शर्मा

 इस नीली नीली धरती में, एक लाल भू का भाग है,

यह पानी सा बहता लहू, लग रही धरा में आग है |


यह कैसा विचित्र द्र्श्य है, भाई का भाई काल है,

समय हुआ ज्वलनशील, लग रही हृदय में आग है |


इसी बीच रणभूमि के, यह कौन योद्धा आया है?

सारथी जिसके स्वयं प्रभु, कहर जिसने बरपाया है |


है कौन यह जो बचा रहा, है अपने भाइयो की साख,

पेड़ो, टहनियों, पत्तों के बीच दिखती जिसे चिड़िया की आँख |


भुजा है जिसके वज्र समान, रौरव है उसका ये क्रोध,

एकाग्रता है परम शस्त्र, ना बाधा है न है अवरोध |


अभिमन्यु जैसा वीर पुत्र, भीम जैसा भीम भाई,

पांडु जैसा महान पिता, कुंती है जिसकी माई |


आंखो में है जिसके अग्नि, रण लड़ना जिसका काम है,

द्रोणाचार्य का परम शिष्य, अर्जुन उसका नाम है |


अर्जुन उसका नाम है, कर्म ही जिसका धर्म है,

जज्बा है सीने में धंसा, अधर्म के लिए ना नर्म है |


है अर्जुन हर एक शख्स वो, जिसको खुद की पहचान है,

फल की चिंता नहीं जिसे, सिर्फ कर्म पर ही ध्यान है |


द्वेष ना कोई रखता है, ना लालच जिसे सुहाता है,

प्रभु के सारथी होने पर भी, धनुष खुद ही उठाता है |


हो सामने अपने मगर, धर्म के लिए रण में जाता है,

सुसज्जित यौवन से भरी, अप्सरा को कहता माता है |



आयुष शर्मा 

है अर्जुन हर एक वीर वो, जो अज्ञातवास भी जाता है,

गलती पर पश्तचाप के लिए, तन को अपने तपाता है |


किरदार अनूठे निभाता है, लेकिन संयम भी रखता है,

उसके धीरज को देख कर, ना कोई उसे परखता है |



नारी-शक्तिरूपम् !! - कैलाश रौथांण

 यहां नग्न होती नीतियां हैं

न्याय भवन में नग्न सत्य है

काले वस्त्रों में खड़ा दशानंन

स्वर्ण, अर्थ का अधिपत्य है


दुशासन को करो सुसज्जित

शकुनी जहां दरबान बने

शांतिदूत जहां स्वयं विनाशक

कौरव सेना का मेहमान बने


हे ! द्रोपदी स्वयं शक्ति बनों

अब कृष्ण जन्म नहीं लेते

देवकी वही अभागन है

दहलीज पे कंस खड़े रहते


दंड दंड में दंडित कर उनको

खंड खंड कर, खंडित कर

जला स्वाभिमान का अग्नि कुंड

काली का रूप प्रचंडित कर


हे दुर्ग पर बैठे राजन् ! आप न चौकीदार बनो

करो भ्रमंणं अब नरेश ! नारी के तारणहार बनो

कर भेदन् उस अनुच्छेद का, जहां स्त्री अबला रहती हो

अगं-भगं,कर नगर मध्य, नियमों के नवअवतार बनो !


कैलाश रौथांण !!!

Friday, July 31, 2020

मजदूरों की मजबूरी..... : भूमिका शिवहरे

मजदूरों की मजबूरी का अजीब तमाशा बनाया जा रहा है।
 जिन्होंने शहर बनाया 
 आज उन्हें सड़कों पर चलाया जा रहा है।

 तपती धूप, सिकती सड़कें, मासूम चेहरे 
 आंखों से देश का स्वाभिमान बहाया जा रहा है........
 लाशों का ढेर लगा है उस ओर 
 और यहां केवल बवाल बनाया जा रहा है।

 सरहदें तो बची ही नहीं उनके लिए,  
 बस परिवार कीमती, 
 हजारों मीलों की दूरी और 
 दाव अपनी जान का लगाया जा रहा है। 
 साथ में नन्हे कदम, 
 भूख से हर पल आस टूटती, 
 फिर भी घर पहुँचने का सपना 
 आँखो में सजाया जा रहा है। 

 देश की ताकत, सड़कों पर, 
 पटरीयो पर लाचार पडी थी , 
 और वहां अर्थव्यवस्था को दुगनी 
 करने का अनुमान लगाया जा रहा है।
 पहले किसान मरते थे 
 आपदा के समय,
 आज मजदूरों का समर्पण 
 आहुति सा चढाया जा रहा है,

 मजदूरों की मजबूरी का,
 अजीब तमाशा बनाया जा रहा है.......

भूमिका शिवहरे
जुलाई अंक

सकारात्मकता : यमुना धर त्रिपाठी "पिंकू"

हो ध्येय पथ पर अग्रसर,
प्रतिदिन-प्रतिपल-प्रतिप्रहर,
आलोचना को करके सहन,
सघन वन को बना उपवन,
सतत-अनथक-अनहद श्रम,
अवनत हो या उन्नत जीवन,
संग्राम-सामना उलझन से,
विपदा, संकट और मिश्रण से,
निंदा-प्रवाद का करके त्याग,
चिर-निद्रा को तोड़ जाग,
नैतिकता के पथ पर चलकर,
सहकर कष्ट, अग्नि में तपकर,
स्वयं प्रफुल्लित, आनंदित हो,
वसुधैव-कुटुम्बकम् का बीज बो,
भूत-भविष्य का मंथन छोड़,
बाधाओं को तोड़-मरोड़,
आगे बढ़ना, बढ़ते रहना,
बढ़ते रहना, नहीं थकना,
आगे ही बढ़ते जाना है।
जीवन को धन्य बनाना है।।

-यमुना धर त्रिपाठी "पिंकू"
जुलाई अंक

माँ : अमूल्य रत्न त्रिपाठी

माँ

होता कुछ भी नहीं मैं,

अगर तू साथ ना होती,

गिर के संभल ना पाता,

गर तू मेरे पास ना होती

आसमान में सुराख़ कर देती,

ख्वाहिश जो मेरी ये भी होती,

खुशियों में मेरी तू,

अपने गम भुला ही देती,

मेरे कदमों की आहट को,

दुर से ही पहचान लेती

लड़कपन की गलतियों को,

यूँ ही तू भुला ही देती,

नीदों में भी अपनी तु,

मेरे सपने सजा के रखती

होता कुछ भी नहीं मैं,

गर तू मेरी माँ ना होती

 

अमूल्य



जुलाई अंक 

मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र : सत्य रंजन

जीवन मेरा है ऊहापोश, सुख की है बस छाया मात्र ।

 
सुख की मेरी कल्पना अलग, हूँ पूर्वजो के मत में कुपात्र।
 
पूर्वजो ने गुंथे संयम के मिट्टी, बोये उसमे संतुष्टि के बीज,
फूल खिले समृद्धि के उसमे, जिस से महक रहा मेरा अतीत।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मुझ में नहीं है संयम के पुट, संतुष्ट होना है मेरे लिये मृत समान,
इन भावो से भी है बितृष्णा, लोलुप-लालसा मेरे आराध्य भगवान।
 
तब सम्बन्धो में थी एक अजब ही होड़, अतिथि का था अत्यंत मान,
आर्थिक बिपन्नता में भी थे सहिष्णु, जिन्दा था उनका आत्मसम्मान ।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
सम्बन्धो को सुध कौन रखे, माता पिता भी अब मेरे अतिथि,
बस थोड़ा और करता करता, आपने शरीर को बना ली है दधीचि।
 
आँखों में पसरी थी दूर तक खुशी, प्रेम से था आच्छादित मन,
छोटे छोटे खुशियों से भर के आलाह्दित कर दिया मेरा बचपन।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मेरे सुख की परिभाषा अलग, भौतिक सुख ही मेरा जीवन,
कोलाहल भर के मस्तिष्क में, घट-घट बेतहाशा ढूंढ़ता हु संजीवन।
 
पूर्वजो ने बांधे ग्रहो के फेर, कभी राहु तो कभी बृहस्पति की दशा,
सभ्यक ज्ञान से मंगल को मनाया, शांत किया शनि की भी महादशा।
 
अंतरकलह ही बस मेरी दशा, चिंता का भी हूँ प्रिय पात्र,
मधुमेह, रक्तचाप जैसे जीवनसाथी, ऋणदोष ही अब मेरा गोत्र।
 
क्योंकि………….
 
मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र ।
 

सत्य रंजन

जुलाई अंक 

Wednesday, June 24, 2020

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलियाँ

जिनकी कृपा कटाक्ष से ,प्रज्ञा , बुद्धि , विचार । 
शब्द,गीत,संगीत ,स्वर ,विद्या का अधिकार ।।
विद्या का अधिकार ,ज्ञान ,विज्ञानं ,प्रेम -रस ।
हर्ष , मान ,सम्मान ,सम्पदा जग की सरबस । 
' ठकुरेला ' समृद्धि , दया से मिलती इनकी ।
मंगल सभी सदैव , शारदा प्रिय हैं जिनकी ।।
 

अपनी अपनी अहमियत , सूई  या  तलवार । 
उपयोगी  हैं भूख में  ,  केवल  रोटी चार ।।
केवल रोटी चार ,  नहीं खा सकते  सोना । 
सूई का  कुछ  काम ,  न  तलवारों  से  होना ।
'ठकुरेला'  कविराय , सभी  की  माला जपनी ।
बड़ा हो  कि  लघुरूप , अहमियत सबकी  अपनी ।।


सोना तपता आग में , और निखरता रूप 
कभी न रुकते साहसी , छाया हो या धूप ।।
छाया हो या धूप , बहुत सी बाधा आयें  ।
कभी न बनें अधीर ,नहीं मन में घवरायें  ।
'ठकुरेला' कविराय , दुखों से कैसा रोना  ।
निखरे सहकर कष्ट , आदमी हो या सोना  ।।



नारी का सौन्दर्य है , उसका सबल चरित्र । 
आभूषण का अर्थ क्या , अर्थहीन है इत्र ।।
अर्थहीन है  इत्र ,चन्द्रमा भी शरमाता ।
मुखमण्डल पर तेज, सूर्य सा शोभा पाता ।
'ठकुरेला' कविराय ,पूछती दुनिया सारी ।
पाती  मान  सदैव ,गुणों से पूरित नारी ।।


रत्नाकर सबके लिए  ,होता एक समान ।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।।
सीप चुने नादान,अज्ञ मूंगे पर मरता ।
जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता ।
'ठकुरेला' कविराय ,सभी खुश इच्छित पाकर ।
हैं मनुष्य के भेद ,एक सा है रत्नाकर ।।



होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान 
करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान ।।
सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी ।
यदि खुद करे प्रयास , मूर्ख बन जाता ज्ञानी ।
'ठकुरेला' कविराय , सहज पढ़ जाता तोता ।
कुछ भी नहीं अगम्य, पहुँच में सब कुछ होता ।।



थोथी बातों से कभी , जीते गये न युद्ध ।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध ।।
करनी करते बुद्ध , नया इतिहास रचाते 
करते नित नव खोज , अमर जग में हो जाते ।
'ठकुरेला' कविराय ,सिखातीं सारी पोथी ।
ज्यों ऊसर में बीज , वृथा हैं बातें थोथी  ।।


भातीं सब बातें  तभी ,जब  हो  स्वस्थ शरीर । 
लगे  बसंत  सुहावना , सुख से  भरे समीर ।।
सुख से  भरे समीर ,मेघ  मन  को  हर  लेते ।
कोयल ,चातक  मोर , सभी  अगणित सुख  देते ।
'ठकुरेला'  कविराय , बहारें  दौड़ी  आतीं ।
तन ,मन  रहे अस्वस्थ , कौन  सी  बातें  भातीं ।। 


हँसना सेहत के लिए  , अति हितकारी मीत ।
कभी  न  करें  मुकाबला , मधु ,मेवा , नवनीत ।।
मधु ,मेवा ,नवनीत ,दूध ,दधि ,कुछ  भी खायेँ ।
अवसर  हो  उपयुक्त , साथियो  हँसे - हँसायें ।
'ठकुरेला' कविराय  ,पास हँसमुख के बसना ।
रखो समय  का ध्यान , कभी असमय मत  हँसना ।।   



धीरे  धीरे  समय  ही , भर   देता  है  घाव । 
मंजिल पर जा  पंहुचती , डगमग होती नाव ।।
डगमग होती नाव  ,अंततः मिले  किनारा । 
मन की मिटती पीर ,  टूटती तम  की  कारा ।
'ठकुरेला' कविराय , खुशी  के  बजें मजीरे ।
धीरज रखिये मीत ,  मिले  सब  धीरे धीरे ।।



तिनका तिनका जोड़कर , बन जाता है  नीड़ ।
अगर  मिले  नेत्तृत्व तो , ताकत बनती भीड़ ।।
ताकत  बनती  भीड़ , नये   इतिहास   रचाती । 
जग  को  दिया प्रकाश , मिले  जब दीपक , बाती ।।
'ठकुरेला' कविराय ,ध्येय  सुन्दर  हो  जिनका ।
रचते  श्रेष्ठ  विधान ,मिले  सोना  या तिनका ।। 


बढ़ता  जाता जगत  में , हर  दिन  उसका मान ।
सदा  कसौटी  पर  खरा , रहता  जो  इंसान ।।    
रहता  जो  इंसान , मोद    सबके  मन  भरता । 
रखे न मन  में  लोभ , न  अनुचित बातें करता ।
'ठकुरेला'  कविराय ,कीर्ति -  किरणों पर  चढ़ता ।
बनकर   जो  निष्काम , पराये  हित   में बढ़ता ।।  


यह जीवन  है बाँसुरी ,  खाली खली मीत ।
श्रम से  इसे  संवारिये , बजे  मधुर  संगीत ।।
बजे  मधुर  संगीत , ख़ुशी से सबको भर  दे ।
थिरकेँ सब  के पाँव , हृदय को झंकृत कर दे ।
'ठकुरेला' कविराय , महकने  लगता तन मन ।
श्रम  के  खिलें  प्रसून , मुस्कराता  यह  जीवन ।। 


छाया  कितनी  कीमती , बस  उसको  ही ज्ञान ।
जिसने देखें हों  कभी, धूप  भरे दिनमान ।।
धूप  भरे दिनमान , फिरा हो धूल छानता । 
दुख सहकर ही व्यक्ति , सुखों का मूल्य जानता । 
'ठकुरेला'  कविराय ,  बटोही  ने समझाया ।
देती  बड़ा  सुकून  ,  थके  हारे  को  छाया ।।   



जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल ।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा ,कुछ हल लिये निकाल ।।
कुछ हल लिये निकाल , असर  कुछ काम  हो जाता ।
नहीं सताती धूप , अगर सर पर हो छाता ।
'ठकुरेला' कविराय ,ताप काम होते मन  के ।
खुल जाते  हैं द्वार , जगत में नव  जीवन के ।।


जीवन जीना है कला , जो जाता पहचान ।
विकट परिस्थिति भी उसे , लगती है आसान ।।
लगती है आसान , नहीं दुःख से घबराता । 
ढूढ़े  मार्ग अनेक , और बढ़ता ही जाता । 
'ठकुरेला' कविराय ,नहीं होता विचलित मन ।
सुख-दुख , छाया-धूप , सहज बन जाता जीवन ।।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला 
आबू  रोड  (राजस्थान ) 



जून अंक