Friday, July 31, 2020

मजदूरों की मजबूरी..... : भूमिका शिवहरे

मजदूरों की मजबूरी का अजीब तमाशा बनाया जा रहा है।
 जिन्होंने शहर बनाया 
 आज उन्हें सड़कों पर चलाया जा रहा है।

 तपती धूप, सिकती सड़कें, मासूम चेहरे 
 आंखों से देश का स्वाभिमान बहाया जा रहा है........
 लाशों का ढेर लगा है उस ओर 
 और यहां केवल बवाल बनाया जा रहा है।

 सरहदें तो बची ही नहीं उनके लिए,  
 बस परिवार कीमती, 
 हजारों मीलों की दूरी और 
 दाव अपनी जान का लगाया जा रहा है। 
 साथ में नन्हे कदम, 
 भूख से हर पल आस टूटती, 
 फिर भी घर पहुँचने का सपना 
 आँखो में सजाया जा रहा है। 

 देश की ताकत, सड़कों पर, 
 पटरीयो पर लाचार पडी थी , 
 और वहां अर्थव्यवस्था को दुगनी 
 करने का अनुमान लगाया जा रहा है।
 पहले किसान मरते थे 
 आपदा के समय,
 आज मजदूरों का समर्पण 
 आहुति सा चढाया जा रहा है,

 मजदूरों की मजबूरी का,
 अजीब तमाशा बनाया जा रहा है.......

भूमिका शिवहरे
जुलाई अंक

सकारात्मकता : यमुना धर त्रिपाठी "पिंकू"

हो ध्येय पथ पर अग्रसर,
प्रतिदिन-प्रतिपल-प्रतिप्रहर,
आलोचना को करके सहन,
सघन वन को बना उपवन,
सतत-अनथक-अनहद श्रम,
अवनत हो या उन्नत जीवन,
संग्राम-सामना उलझन से,
विपदा, संकट और मिश्रण से,
निंदा-प्रवाद का करके त्याग,
चिर-निद्रा को तोड़ जाग,
नैतिकता के पथ पर चलकर,
सहकर कष्ट, अग्नि में तपकर,
स्वयं प्रफुल्लित, आनंदित हो,
वसुधैव-कुटुम्बकम् का बीज बो,
भूत-भविष्य का मंथन छोड़,
बाधाओं को तोड़-मरोड़,
आगे बढ़ना, बढ़ते रहना,
बढ़ते रहना, नहीं थकना,
आगे ही बढ़ते जाना है।
जीवन को धन्य बनाना है।।

-यमुना धर त्रिपाठी "पिंकू"
जुलाई अंक

माँ : अमूल्य रत्न त्रिपाठी

माँ

होता कुछ भी नहीं मैं,

अगर तू साथ ना होती,

गिर के संभल ना पाता,

गर तू मेरे पास ना होती

आसमान में सुराख़ कर देती,

ख्वाहिश जो मेरी ये भी होती,

खुशियों में मेरी तू,

अपने गम भुला ही देती,

मेरे कदमों की आहट को,

दुर से ही पहचान लेती

लड़कपन की गलतियों को,

यूँ ही तू भुला ही देती,

नीदों में भी अपनी तु,

मेरे सपने सजा के रखती

होता कुछ भी नहीं मैं,

गर तू मेरी माँ ना होती

 

अमूल्य



जुलाई अंक 

मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र : सत्य रंजन

जीवन मेरा है ऊहापोश, सुख की है बस छाया मात्र ।

 
सुख की मेरी कल्पना अलग, हूँ पूर्वजो के मत में कुपात्र।
 
पूर्वजो ने गुंथे संयम के मिट्टी, बोये उसमे संतुष्टि के बीज,
फूल खिले समृद्धि के उसमे, जिस से महक रहा मेरा अतीत।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मुझ में नहीं है संयम के पुट, संतुष्ट होना है मेरे लिये मृत समान,
इन भावो से भी है बितृष्णा, लोलुप-लालसा मेरे आराध्य भगवान।
 
तब सम्बन्धो में थी एक अजब ही होड़, अतिथि का था अत्यंत मान,
आर्थिक बिपन्नता में भी थे सहिष्णु, जिन्दा था उनका आत्मसम्मान ।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
सम्बन्धो को सुध कौन रखे, माता पिता भी अब मेरे अतिथि,
बस थोड़ा और करता करता, आपने शरीर को बना ली है दधीचि।
 
आँखों में पसरी थी दूर तक खुशी, प्रेम से था आच्छादित मन,
छोटे छोटे खुशियों से भर के आलाह्दित कर दिया मेरा बचपन।
 
पर मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र,
मेरे सुख की परिभाषा अलग, भौतिक सुख ही मेरा जीवन,
कोलाहल भर के मस्तिष्क में, घट-घट बेतहाशा ढूंढ़ता हु संजीवन।
 
पूर्वजो ने बांधे ग्रहो के फेर, कभी राहु तो कभी बृहस्पति की दशा,
सभ्यक ज्ञान से मंगल को मनाया, शांत किया शनि की भी महादशा।
 
अंतरकलह ही बस मेरी दशा, चिंता का भी हूँ प्रिय पात्र,
मधुमेह, रक्तचाप जैसे जीवनसाथी, ऋणदोष ही अब मेरा गोत्र।
 
क्योंकि………….
 
मैं कलयुगी हूँ पुरुष पात्र ।
 

सत्य रंजन

जुलाई अंक