Wednesday, June 24, 2020

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलियाँ

जिनकी कृपा कटाक्ष से ,प्रज्ञा , बुद्धि , विचार । 
शब्द,गीत,संगीत ,स्वर ,विद्या का अधिकार ।।
विद्या का अधिकार ,ज्ञान ,विज्ञानं ,प्रेम -रस ।
हर्ष , मान ,सम्मान ,सम्पदा जग की सरबस । 
' ठकुरेला ' समृद्धि , दया से मिलती इनकी ।
मंगल सभी सदैव , शारदा प्रिय हैं जिनकी ।।
 

अपनी अपनी अहमियत , सूई  या  तलवार । 
उपयोगी  हैं भूख में  ,  केवल  रोटी चार ।।
केवल रोटी चार ,  नहीं खा सकते  सोना । 
सूई का  कुछ  काम ,  न  तलवारों  से  होना ।
'ठकुरेला'  कविराय , सभी  की  माला जपनी ।
बड़ा हो  कि  लघुरूप , अहमियत सबकी  अपनी ।।


सोना तपता आग में , और निखरता रूप 
कभी न रुकते साहसी , छाया हो या धूप ।।
छाया हो या धूप , बहुत सी बाधा आयें  ।
कभी न बनें अधीर ,नहीं मन में घवरायें  ।
'ठकुरेला' कविराय , दुखों से कैसा रोना  ।
निखरे सहकर कष्ट , आदमी हो या सोना  ।।



नारी का सौन्दर्य है , उसका सबल चरित्र । 
आभूषण का अर्थ क्या , अर्थहीन है इत्र ।।
अर्थहीन है  इत्र ,चन्द्रमा भी शरमाता ।
मुखमण्डल पर तेज, सूर्य सा शोभा पाता ।
'ठकुरेला' कविराय ,पूछती दुनिया सारी ।
पाती  मान  सदैव ,गुणों से पूरित नारी ।।


रत्नाकर सबके लिए  ,होता एक समान ।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।।
सीप चुने नादान,अज्ञ मूंगे पर मरता ।
जिसकी जैसी चाह,इकट्ठा वैसा करता ।
'ठकुरेला' कविराय ,सभी खुश इच्छित पाकर ।
हैं मनुष्य के भेद ,एक सा है रत्नाकर ।।



होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान 
करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान ।।
सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी ।
यदि खुद करे प्रयास , मूर्ख बन जाता ज्ञानी ।
'ठकुरेला' कविराय , सहज पढ़ जाता तोता ।
कुछ भी नहीं अगम्य, पहुँच में सब कुछ होता ।।



थोथी बातों से कभी , जीते गये न युद्ध ।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध ।।
करनी करते बुद्ध , नया इतिहास रचाते 
करते नित नव खोज , अमर जग में हो जाते ।
'ठकुरेला' कविराय ,सिखातीं सारी पोथी ।
ज्यों ऊसर में बीज , वृथा हैं बातें थोथी  ।।


भातीं सब बातें  तभी ,जब  हो  स्वस्थ शरीर । 
लगे  बसंत  सुहावना , सुख से  भरे समीर ।।
सुख से  भरे समीर ,मेघ  मन  को  हर  लेते ।
कोयल ,चातक  मोर , सभी  अगणित सुख  देते ।
'ठकुरेला'  कविराय , बहारें  दौड़ी  आतीं ।
तन ,मन  रहे अस्वस्थ , कौन  सी  बातें  भातीं ।। 


हँसना सेहत के लिए  , अति हितकारी मीत ।
कभी  न  करें  मुकाबला , मधु ,मेवा , नवनीत ।।
मधु ,मेवा ,नवनीत ,दूध ,दधि ,कुछ  भी खायेँ ।
अवसर  हो  उपयुक्त , साथियो  हँसे - हँसायें ।
'ठकुरेला' कविराय  ,पास हँसमुख के बसना ।
रखो समय  का ध्यान , कभी असमय मत  हँसना ।।   



धीरे  धीरे  समय  ही , भर   देता  है  घाव । 
मंजिल पर जा  पंहुचती , डगमग होती नाव ।।
डगमग होती नाव  ,अंततः मिले  किनारा । 
मन की मिटती पीर ,  टूटती तम  की  कारा ।
'ठकुरेला' कविराय , खुशी  के  बजें मजीरे ।
धीरज रखिये मीत ,  मिले  सब  धीरे धीरे ।।



तिनका तिनका जोड़कर , बन जाता है  नीड़ ।
अगर  मिले  नेत्तृत्व तो , ताकत बनती भीड़ ।।
ताकत  बनती  भीड़ , नये   इतिहास   रचाती । 
जग  को  दिया प्रकाश , मिले  जब दीपक , बाती ।।
'ठकुरेला' कविराय ,ध्येय  सुन्दर  हो  जिनका ।
रचते  श्रेष्ठ  विधान ,मिले  सोना  या तिनका ।। 


बढ़ता  जाता जगत  में , हर  दिन  उसका मान ।
सदा  कसौटी  पर  खरा , रहता  जो  इंसान ।।    
रहता  जो  इंसान , मोद    सबके  मन  भरता । 
रखे न मन  में  लोभ , न  अनुचित बातें करता ।
'ठकुरेला'  कविराय ,कीर्ति -  किरणों पर  चढ़ता ।
बनकर   जो  निष्काम , पराये  हित   में बढ़ता ।।  


यह जीवन  है बाँसुरी ,  खाली खली मीत ।
श्रम से  इसे  संवारिये , बजे  मधुर  संगीत ।।
बजे  मधुर  संगीत , ख़ुशी से सबको भर  दे ।
थिरकेँ सब  के पाँव , हृदय को झंकृत कर दे ।
'ठकुरेला' कविराय , महकने  लगता तन मन ।
श्रम  के  खिलें  प्रसून , मुस्कराता  यह  जीवन ।। 


छाया  कितनी  कीमती , बस  उसको  ही ज्ञान ।
जिसने देखें हों  कभी, धूप  भरे दिनमान ।।
धूप  भरे दिनमान , फिरा हो धूल छानता । 
दुख सहकर ही व्यक्ति , सुखों का मूल्य जानता । 
'ठकुरेला'  कविराय ,  बटोही  ने समझाया ।
देती  बड़ा  सुकून  ,  थके  हारे  को  छाया ।।   



जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल ।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा ,कुछ हल लिये निकाल ।।
कुछ हल लिये निकाल , असर  कुछ काम  हो जाता ।
नहीं सताती धूप , अगर सर पर हो छाता ।
'ठकुरेला' कविराय ,ताप काम होते मन  के ।
खुल जाते  हैं द्वार , जगत में नव  जीवन के ।।


जीवन जीना है कला , जो जाता पहचान ।
विकट परिस्थिति भी उसे , लगती है आसान ।।
लगती है आसान , नहीं दुःख से घबराता । 
ढूढ़े  मार्ग अनेक , और बढ़ता ही जाता । 
'ठकुरेला' कविराय ,नहीं होता विचलित मन ।
सुख-दुख , छाया-धूप , सहज बन जाता जीवन ।।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला 
आबू  रोड  (राजस्थान ) 



जून अंक

ग़ज़ल : बलजीत सिंह बेनाम

साथ तेरे हो कैसे बसर ज़िंदगी
संग मैं हूँ तू शीशे का घर ज़िंदगी

अहमियत जानते हैं जो इसकी बहुत
सिर्फ़ उनके लिए इक हुनर ज़िंदगी

तेरे क़दमों पे गिर भीख ये माँगती
तू लगाता अगर दांव पर ज़िंदगी

मैं तो वादे पे अपने हूँ क़ायम मगर
तू न वादे से अपने मुकर ज़िंदगी
बलजीत सिंह बेनाम 
जून अंक

हे हिन्द के वीर : आकर्षण राय

हे वीर तुम चले चलो
    हे वीर तुम चले चलो
रुको ना तुम
    झुको ना तुम
सत्य के मार्ग से हटो ना तुम
    अपने साथ सिर्फ़ निस्चय कर
यह तुम तीन मंत्र लिए चलो।
     हे वीर तुम चले चलो ,
हे वीर तुम चले चलो ।


अपने सीने में आग तुम लिए चलो
अपने सीने में ये चिराग तुम लिए चलो
अपनी रोशनी से इस जहां को   
 रोशन करने का ख्वाब तुम लिए चलो
हे वीर तुम चले चलो,
हे वीर तुम चले चलो।


तुम सोच कर चलो ,
तुम विचार कर चलो 
इस राह की मुसीबतों को पार कर चले चलो
हे वीर तुम चले चलो,
हे वीर तुम चले चलो।



                  आकर्षण राय
जून अंक

खुद से प्यार करो :अमित निरंजन

चलते चलते जीवन के सफर में
एक अनोखी आवाज़ सुनने को आई
कभी हँसती थी कभी रोती थी वोह
दूर से लगती थी धुंधली धुंधली परिछायी
बात भी उसकी कुछ समझ नहीं आती थी, 
वोह बार-बार बतलाती थी
कि तुम्हारी कितनी अच्छी दुनिया है, 
जितने भी वहम है मन में सब महज गलतफहमियां हैं
आत्मविश्वास का परचम लेके तुम
खुद पर बस एतबार करो
नफरत करके बहुत देख ली
एक बार तोह खुद से प्यार करो

तुम जब जब दिल से कुछ चाहोगे
कायनात साथ तुम्हारे साथ लग जायेगी
खुद को जब सराहोगे
परेशान रूह संभल जाएगी
उम्मीद के भरोसे न रहना तुम
सब कसमें इसने तोड़ी है
इस मतलबी जमाने ने
एक कोहरे की चादर ओढ़ी है
और खुशी खुशी रहने की बस 
बहुत थोड़ी जगह छोड़ी है
असलियत का दर्पण लेके तुम
बस खुद पर तुम एतबार करो
बरकत दूसरों से बहुत माँग ली
एक बार तोह खुद से प्यार करो

अमित निरंजन



जून अंक

आगे ही कदम बढ़ाएंगे यमुना धर त्रिपाठी

आगे ही कदम बढ़ाएंगे

रहकर स्निग्ध-शांत-सरल,
कर विपत्ति-व्यथा-दुख को ओझल,
सम-शांत भाव अपनाएंगे,
आगे ही कदम बढ़ाएंगे।

आंधी-तूफानों को सहकर,
तप-त्याग-तपस्या कर के निखर,
जीवन दीप जलाएंगे,
आगे ही कदम बढ़ाएंगे।

जल-प्रपात या झंझावात,
प्रचण्ड बवंडर, चक्रवात,
भंवर को दूर भगाएंगे,
आगे ही कदम बढ़ाएंगे।

उपदेश सदा कर आत्मसात,
डिगा सके किसकी विसात?
अति सौम्य-भद्र बन जाएंगे,
आगे ही कदम बढ़ाएंगे।

कलह-टक्कर-मुठभेड़-होड़,
संघर्ष-शत्रुता फोड़-तोड़,
अनुराग बीज बो जाएंगे,
आगे ही कदम बढ़ाएंगे।

युगवेदव्यास करें समीक्षा,
अपने श्रेष्ठ कार्यों का,
पांचजन्य बजाएंगे,
आगे ही बढ़ते जाएंगे।

-यमुना धर त्रिपाठी

जून अंक

दौड़ है वक्त से : अमित निरंजन

वक्त से दौड़ है वक्त को पाने के लिए
वक्त ही कहाँ है किश्मत आजमाने के लिए
पहिया वक्त का मानो घूमता ही चला
जब हम भी घूमे उसके साथ में 
तब आगे बड़ा ज़िन्दगी का सिलसिला
कभी सोचा थोड़ा थम जाए ए
तो गतिमान हुई रफ्तार बिना कोई अवरोध के
कुछ लम्हे कैद करने थे पर वो न रुका 
सोच कर मन विचलित हुआ
भर गया दिल क्रोध से
धैर्य की हत्या हुई 
खुद से लिए हुए प्रतिशोध से
दुखों के जब बादल छाए
पुराने ज़ख्म फिर भर आए
अवशेष रह गए हैं बस अब खुद के आवेश के
द्वेष मिटे पीड़ा मिटे पश्चाताप के भावेश से
संताप भरा करुणा मन विरक्त है स्नेह के लिए
दौड़ है वक्त से वक्त को पाने के लिए
वक्त ही कहाँ है किश्मत आजमाने के लिए

अमित निरंजन
जून अंक