Sunday, July 24, 2011

कवि-सृष्टि


कवि की यह सृष्टि अलौकिक
यहाँ शशकशृंग भी होता है ।
चकवी के वियोग में चकवा
सदा यहाँ पर रोता है ॥
दूर कहीं गगनाञ्चल में,
आकाशकुसुम भी यही खिलाते,
जब भी कोई बच्चा रोता,
चन्दामामा पास बुलाते।
देखो कवि-कल्पना अलौकिक,
कृत्रिम होकर भी है मौलिक।
ये आग से सिंचन करते,
आकाशमार्ग से प्रवचन करते।
नहीं यहाँ कुछ भी असम्भव,
दरिद्र नारायण, कुबेर का वैभव ॥
काव्यलोक कल्पना से इनकी,
निशिदिन सज्जित होता है ।
निर्धन की कुटिया में भी,
प्रासाद अलंकृत होता है ॥
यहाँ पर कोयल सदा कूजती,
आकाश निहारता चातक है ।
करुणा में भी आनन्द यहाँ,
करुण-रस आह्लादक है ॥

Monday, July 18, 2011

मानव और प्रकृति


प्रकृति-प्रज्ञा-शिशु मानव।
करता आविष्कार नवल-नव।
दुःसाहस तो इसका देखो,
छीन लिया धरती का कलरव॥
गहन तरु-लता नष्ट-भ्रष्टकर,
वसुधा विपिन-विहीन किया ।
कीट-पतंग औ सरीसृप संग,
खग-मृग-आश्रय छीन लिया॥
सिंह-शावकों का शैशव छीना,
मिलकर खूब शिकार किया।
जंगम-स्थावर प्रकृति का,
हो व्यसन-अन्ध संहार किया॥
लुप्त हो गयीं कई प्रजातियाँ,
कई पर संकट छाया है।
पारितन्त्र को तहस-नहस कर,
आखिर इसने क्या पाया है?