Tuesday, April 30, 2013

अप्रैल अंक: ममता त्रिपाठी की कविता : करें हम प्रत्यभिज्ञा


शक्तियाँ असीमित,
बस नेत्र हैं निमीलित,
निज पर विश्वास करें,
जीवन में सुवास भरें,
अन्तर्मन मुखरित हो,
क्लेश सब विगलित हो,
क्लान्ति-श्रान्ति त्यागें हम,
फिर एक बार जागें हम,
गहें पावन शिवाज्ञा
करें हम प्रत्यभिज्ञा।।
मुख न कभी म्लान हो,
शक्ति का संचार हो,
लक्ष्य का संधान हो,
जीवनोत्थान हो,
हो सफल प्रतिज्ञा।
करें हम प्रत्यभिज्ञा॥
गरिमा का घट भरे,
रोर पनघट करे,
बटेर फिर रट करे,
कि एक नया विहान हो,
नीला वितान हो,
हो शिव की अनुज्ञा।
करें हम प्रत्यभिज्ञा॥
गौरेया का कलरव,
गायों की नूपुर रव,
नव उल्लास दे,
वधुओं की रुन्झुन
घर को उजास दे,
जगे हमारी प्रज्ञा।
करें हम प्रत्यभिज्ञा

मुकेश कुमार मिश्र: तुम न आई और मैं बाट जोहता रहा ....


               तुमने कहा था कि...............
रात के अंधकार मे मिलोगी तुम
मैंने भी सुना था कि
रात के अंधकार में मिलोगी तुम
दुर्भाग्य से उस दिन
जिस दिन का ये
वाकया है
पूनम की रात थी
अंधेरी रात तो
बहुत दूर की बात थी
फिर भी
पत्थर रख
अपने कलेजे पर
मैंने तुम्हारी यह
शर्त बिना शर्त
स्वीकार की
तब से न जाने
कितनी अंधेरी रातें
बितायी मैंने इन्तज़ार की
उसी दिन से मैं
अमावस की बाट जोहता रहा
बस तुमको ही खोजता रहा
न जाने तब से कितने अमावस आये
कितनी पूनम की रातें बीतीं
मैं पागलों सा
बस तुम्हारा ही
हाँ बस तुम्हारा ही
बाट जोहता रहा
पर आज हज़ारों पूनम
और हजारों अमावस
बीतने के बाद भी
तुम न आयी
और मैं ..............
पागलों सा बाट जोहता रहा
पर ये देखकर भी
तुम्हे दया न आयी
उस पूनम की रात से
जिसकी यादें मैं
आज तक सँजोता रहा
मुझे न पड़ी दिखाई कभी
तुम्हारी परछाईं
क्योंकि तुम निष्ठुर !
वचन देकर
कभी लौटकर न आयी
और मैं..................
और मैं................
पागलों सा
तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा
दिनों को गिनता रहा
पर कभी वो अंधेरी रात न आई
जिसमें तुम मिलती
अन्ततः तुम न आई
और मैं.........................
बाट जोहता रहा

Friday, April 26, 2013

अप्रैल अंक: ममता त्रिपाठी की कविता : सम्हल जा रे दुष्ट दुःशासन !


कर तार-तार वसुधा का अञ्चल
जगज्जननी का तिरस्कार किया
शक्तिस्वरूपा साक्षात् शक्ति से
तज मानवता दुर्व्यवहार किया
धात्री धरती है जग को वह
मत भूलो जो उपकार किया
मन्त्रपूत पूजनीया महिला है
पूर्वज ऋषियों ने सत्कार किया
कम्पित धरा करुण क्रन्दन से
आन्दोलित मानस जननी का
सम्हल जा रे दुष्ट दुःशासन !
भोगेगा फल निजकरनी का
मूक अन्ध धृतराष्ट्र बना जो
वो कौरव नाश करायेगा
रुका नहीं अन्याय आज तो
काल रौद्ररूप धर आयेगा..........

Friday, April 19, 2013

अप्रैल अंक: मुकेश कुमार मिश्र की रचना - प्रथम नमन


वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस दिव्य दिया का,
जलता रहता शाम-सुबह जो,
मेरे अंधकार पथ पर,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महासलिल का,
जो मेरे जीवन खेतों ,
को नित-नित सींचा करता है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महावायु का,
बहता रहता क्षुद्र हृदय में,
जो अविरल प्राणरूप में,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस वसुधानी का,
जो अपने उर
पर हम सबको,
सदा धरा करती है,
वन्दन है
अभिनन्दन है
अर्चन है,
उस महागगन का,
जो अपने मानस-विशाल का
परिचय देता जनमानस को,
बार-सहस्त्र वन्दन है
लक्ष-बार अभिनन्दन है
कोटिशः अर्चन है,
उस जीवनदायिनी माँ का,
उस प्राणवाहिनी माँ का,
उस प्रेमसिंचिका माँ का.......
जो मेरे भौतिक शरीर में,
रक्त-रूप बहा करती है,
तमस्-विहीन मार्ग हेतु
जो नित तिल-तिल जला करती है,
जो अपने असीम प्रेमजल से,
मुझको सींचा करती है....................

अप्रैल अंक: मुकेश कुमार मिश्र की रचना - अंकुर


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एक अंकुर ने
गीली मिट्टी के अन्दर से
परिश्रम कर
अपना शीश उठाया है,
संसार की खुशियाँ  बटोरने
नन्हा हाथ फैलाया है।
उसकी आहट सुन
वायु ने
प्रकाश ने,
मिट्टी और जल ने
सहयोग के लिये
अपना हाथ बढ़ाया है।
बस उसे चाहिए एक और सहयोग.............
मानवीय सहयोग.....
उगने के लिये
उगकर बढ़ने के लिये
बढ़कर अंकुर से
विशाल वृक्ष बनने के लिये
निर्विघ्न जीवन जीने के लिये
अब देखना है कि............
कौन देगा अभयदान?