Monday, December 6, 2010

कौन देगा अभयदान?


एक अंकुर ने
गीली मिट्टी के अन्दर से
परिश्रम कर
अपना शीश उठाया है,
संसार की खुशियाँ  बटोरने
नन्हा हाथ फैलाया है।
उसकी आहट सुन
वायु ने
प्रकाश ने,
मिट्टी और जल ने
सहयोग के लिये
अपना हाथ बढ़ाया है।
बस उसे चाहिए एक और सहयोग.............
मानवीय सहयोग.....
उगने के लिये
उगकर बढ़ने के लिये
बढ़कर अंकुर से
विशाल वृक्ष बनने के लिये
निर्विघ्न जीवन जीने के लिये
अब देखना है कि............
कौन देगा अभयदान?

1 comment:

ममता त्रिपाठी said...

कविता बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी है। वर्तमान में प्रकृति को सबसे अधिक खतरा मानव से ही है, ऐसे में एक अंकुर को अपने अस्तित्व के सन्दर्भ में चिन्तित होना स्वाभाविक ही है।