Wednesday, December 8, 2010

शब्दों का सच

उपसर्गों को लगा-लगाकर
शब्द तो हमने खूब गढ़े हैं।
अरुणोदय से अबतक
शब्द तो हमने खूब पढ़े हैं।
शब्दों को कंठस्थ कर-करके
हमने नव सोपान चढ़े हैं।
पर नहीं पूछना कभी भी भाई
शब्दों में जो अर्थ भरे हैं॥
कहने में भयभीत नहीं हूँ
कि अर्थ हमने नहीं पढ़े हैं।
उनमें कुछ को बता सकेगें,
पर गूढ़ार्थ तक चले न जाना।
तुम्हारी भी हम पोल जानते
कहीं पड़े न तुम्हें पछताना।
उसी खेत में तुम भी उपजे
जो मेरा जाना-पहचाना।
इसीलिये गूढ़ार्थ को छोड़ो
पूछो वही, जो हमें बताना।।

1 comment:

ममता त्रिपाठी said...

मात्र शाब्दिक ज्ञान पर अच्छा व्यंग्य है...............................बहुत हद तक यह वास्तविकता भी है।