आज उनके चेहरे से नकाब उतरने लगा,
निष्कलंक छवि पर प्रश्नचिन्ह लगने लगा।
अभी तक बने हुए थे रंगे सियार जो,
बनते थे जनता के परवरदिगार जो,
उनके चेहरे का रंग धुलने लगा॥
अभी तलक चमकता था जो चेहरा,
अब उसी का रंग उड़ने लगा।
पर ताज्जुब है..............
हैरानी इस बात की है.
कि....................
चेहरे का रंग उड़ा,आभा काफूर हुई,
मुख आरक्त हुआ, चमक दूर हुई।
पर कहीं भी आँखों में
वो लाज,
वो हया,
वो शर्म न दिखी,
जो शर्मसार होने पर होती है।
जो अपराधी की आँखों में बसती है।
आखिर वे शर्मायें तो किससे?
आँखें चुराये तो किससे?
जब इस हमाम में सब नंगे हैं।
1 comment:
बिलकुल सही है ....सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं ...
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