Sunday, December 19, 2010

ये कुहासा कब मिटेगा?


कालप्रियानाथ का कण्ठ नहीं साथ है।
दधीचि-अस्थि का वज्र नहीं पास है।
जो इस कालकूट विष का पान कर सके।
इन राक्षसी प्रवृत्तियों का संहार कर सके।
मानवता के अश्रु की धार बह रही।
दानवता अट्टहास कर संहार कर रही॥
त्रयम्बक का तीसरा नेत्र कब खुलेगा?
शुचिता का सूर्य कब क्षितिज पर उगेगा?
प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त कब होंगी?
मनुजता को पशुता से मुक्ति कब मिलेगी?
ये दानवी नरपिशाच मनुष्य कब बनेंगे?
पद्मसर में पावनपूज्यपुष्प कब खिलेंगे?
भगवन्! ये धुंध, ये कुहासा कब मिटेगा?
भ्रष्टाचार का गहन बादल कब छँटेगा?

4 comments:

Mamta Tripathi said...

good poem...............................................

Mamta Tripathi said...

nice picture.

दिवाकर मिश्र said...

iske liye chamatkar ki asha na rakhen, jo bigda hai vah unki bahut si lambe samay ki mehnat se bigda hai. sudharna hai to sudharne valon ko lambe samay tak bahut mehnat karte rahni padegi. yah ek nirantar chalne vali prakriya hai, koi kam nahi jiske kabhi pura ho jane ki asha ki jaye..

Arvind Mishra said...

मिथकीय बोध से आप्लावित और सकारात्मक बदलावों का आह्वान करती सुन्दर सी कविता -बहुत खूब ! आपसे ऐसी और रचनाओं की अपेक्षा रहेगी !