Monday, December 9, 2013

चाहत..................रजनीश कुमार पाण्डेय


चाहतों की चाहतें, चाहत ही बनकर रह गयी।
उनको पाने की तमन्ना ख्वाहिशें ही रह गयी॥

कुछ तो उनमें बात थी जो, दिल तड़प कर रह गया।
उनकी अदाएँ देखकर, दिल मचल के रह गया॥
भावनाओं में थी मासूमियत की कुछ ऐसी लहर।
अ़क्लमन्दी की सारी क़यासें उनमें बहकर रह गयी॥

परम्पराओं में कुछ इस तरह जकड़ा हुआ था मेरा मन।
इश्क़ पाने की तमन्ना उनमें जकड़कर ही रह गयी॥
ग़ौर करता हूँ कभी मै, मासूमियत उनके चेहरे की।
पर मासूम तो था दिल भी मेरा, मासूम बनकर रह गया॥

इश्क़बाज़ी की भला इससे बड़ी इन्तहाँ क्या और होगी।
हम चाहते रहें इतना उनको, पर वो इनकारते ही रह गये॥
ज़िन्दगी के सफ़र में इससे बड़ा सदमा था न कोई।
चाहते थे जिनको दिल से, उनके मन में नफ़रतें ही रह गयीं॥

ख़्वाबों में मेरे आये कुछ इस तरह वो ख़्वाब बनकर।
फिर से उनको पाने की तमन्ना दिल में मचल गयी॥
हैरान हूँ मैं अपने दिल के नफ़रतों के अन्दाज़ से।
नफ़रतों से नफ़रत करके वो प्यार में ही बह गया॥

चाहतों की भला इससे बड़ी सज़ा क्या और होगी।
चाहतों की चाहतें चाहत ही बनकर रह गयीं॥

रजनीश कुमार पाण्डेय
नयी दिल्ली
नवंबर अंक

Saturday, December 7, 2013

आलोकवर्द्धन.........कहफ़ 'रहमानी'


      हूँ  विशिष्टतम !
      गुण  निज  आकुंचन,

      सतत  परिवर्तित  एकाग्र-चिँतन ।



      प्रार्थी  प्रेम  की
      वृक्ष  मनोहारी, आकर्षी
      रुप-विजन छाँह  सघन ।



     बैठ  तू  इस  ठाँव
     आ  क्षणिक  विश्राम  कर
     कि  मैँ  उर-स्वन, शीतल-भुवन ।



     दे  झकझोर
     कुसुमित  पल्लवित  यह  देह
     मिटा  ताप
     सुन  सुगम  संकीर्तन ।



     तू  पाताल, मैँ  आकाश
     तू क्षर-अक्षर, मैँ  दिशाकाश
     रच  कविता, गाय  मन  उन्मन ।



     भू  से  आकाश  तक  मिलती  रहूँ
     रहे  न  पंथ  अपरिचित,गान  उन्मन
     तन  एकल, तान  उन्मन ।



     मेरे  ही  स्वर  साकार
     सिँचित  विश्व-उपवन
     मैँ  प्रेमोद्वेल्लित  विशुद्ध- मन ।



     तू  नील-कुसुम, मैँ  मग
     तू  सुमोँ  का  सुम, मैँ  खग

     मिल  एक  बन; हो  'आलोकवर्द्धन'
नवंबर अंक
कहफ़  'रहमानी'


मुज़फ़्फ़रपुर,बिहार

क्या चारो ओर अंधेरा है ? निरज कुमार सिंह

मन में अंधेरा
तन में अंधेरा
प्यार में अंधेरा
तकरार में अंधेरा
विश्वास में अंधेरा
अंधविश्वास में अंधेरा
अंदर भी अंधेरा
बाहर भी अंधेरा
            क्या कोई उपाय नहीं है ? है
आओ पायें ज्ञान को
खोये हुए विश्वास को
समेटें उन बिखरते रिश्तों को
जिन्हें बनाये बरसों तक
फिर जी लें वो जिंदगी
अहा हँस कर, मुस्कुरा कर
पुरखों की यादों को सजाकर
बड़े-बूढों की पूजा कर
संस्कारों को अपनाकर
क्या अब भी अंधेरा है ?
नवंबर अंक
निरज कुमार सिंह
छपरा, बिहार

Thursday, November 14, 2013

"काव्यरचना" का प्रथम प्रिंट संस्करण (with ISBN) प्रकाशित होने जा रहा है……
एक रचनाकार अपनी पाँच रचनाएं प्रेषित कर सकता है......

 रचना भेजने की अन्तिम तिथि: १५ दिसम्बर २०१३

email- kavyarachana21@gmail.com

सूनी रह गई क्यारी..............सुधीर बंसल

बाद बहुत संघर्षों के।
सज पाई बगिया में क्यारी।
माली की इच्छा फूल हो नर।
पर कली खिल गई नारी।
माली-मालिन का खून सूख गया।
दोनों की मति गई मारी।
दोनों दृण हुए धीरे धीरे।
और फरमान कर दिया जारी।
होगा तो नर फूल ही होगा।
फूल न खिलने देंगे नारी।
आखिर हिम्मत आई माली में।
मालिन भी हिम्मत नहीं हारी।
माली-मालिन असमंजस में भी।
कहीं बिगड़ न जाये क्यारी।
इस डर से कली को तोड़ दिया।
कहीं फूल बने न नारी।
कली कुचल दी खुद माली ने ऐसे।
फिर कभी न आई बारी।
सारी बगिया फिर से बिगड़ गई।

और सूनी रह गई क्यारी....
सुधीर बंसल
-१५, मानसरोवर कोलोनी
रामघाट रोड, अलीगढ़-२०२००१

 अक्टूबर अंक

Tuesday, November 12, 2013

महफूज..................पल्लव

माँ !
मैं बहुत खुश हूँ
यहाँ तुम्हारे अंदर...
सुखीसुरक्षितनिर्भीक
और स्वतन्त्र भी.
ले सकती हूँ
अपनी मर्जी की साँसें
यहाँ मेरे लिए
कोई बंदिश भी नहीं है
फैला सकती हूँ पंखें
उड़ सकती हूँ निर्बाध.
दूर-दूर तक नहीं है यहाँ 
घृणित मानसिकता की
घूरती आँखें
आदमजात की खालों में
पशुओं की घातें.
महफूज हूँ उन खतरों से भी
जिससे तुम्हें हर रोज वाकिफ
होना पड़ता है
मेरी दुनियाँ छोटी ही सही पर
तुम्हारी दुनिया जितनी
स्याह और विषैली नहीं है...

अक्टूबर अंक

पल्लव
इंद्रा पार्क,उत्तमनगर ईस्ट
नई दिल्ली

कब तक मनाऊँ मैं..................आनन्द मूर्ति

कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
गर्दिश में अक्सर.... हर सहारे छूट जाते हैं|1
 मनाने का सलीका है, रिझाने का तरीका है|
मनाते ही मनाते वो........ अक्सर  रूठ जाते है|2
संजोकर दिल में रखता हूँ,नजर को खूब पढ़ता हूँ|
मगर खास होते ही,....अक्सर नजारे छूट जाते हैं|3
आईना समझकर हम.., उन्ही को देख जाते हैं|
संभालने की ही कोशिश में,जो अक्सर टूट जाते हैं|4
सब्र करता हूँ कि मेरे शब्दों में खामी हैं |
नारी अनबन से घरों में,अक्सर मुहारे फ़ूट जाते हैं|5
कब तक मनाऊँ मैं, वो अक्सर रूठ जाते हैं|
पढ़कर हमीं को ,दोस्त पुराने लूट जाते हैं|6
कब तक मनाऊँ मैं..............................

बातों ही बातों में वो मेरा दिल तोड़ जाते हैं|
भंवर में देखकर मुझको अकेला छोड़ जाते हैं|
कभी होठों की शरारत से,कभी नयनों की विरासत से|
लगा के आग सीने में वो...... जलता छोड़ जाते हैं|
कैसे बताए हम कि तुमसे प्यार करते हैं|
जुवाँ पर नाम आते ही वो मुद्दा मोड़ जाते हैं|...


अक्टूबर अंक
आनन्द मूर्ति
बिलासपुर,छत्तीसगढ


दयानिधान.....................निरज कुमार सिंह

प्रातः काल उठते ही कर ले, नियत प्रभु का ध्यान ।
दुःख दर्द हर लेंगे सारे, देंगे प्राणों को त्राण ।
वो हैं दयानिधान ॥
करूणापती करूणा के सागर, धन से हैं भरते वो गागर ।
लोभ मोह का नाम मिटाकर, करते मोक्ष प्रदान ।

वो हैं दयानिधान ॥

अक्टूबर अंक
निरज कुमार सिंह
(छपरा, बिहार)

Friday, September 6, 2013

बुलन्द आवाज.................हरिहर झा

चिढ़ाने का सा भाव
सपनीली आँखों से
देख कर
मैं अपने को पाता हूँ
आधा अधूरा
यह खालीपन …
जाने क्यों ?
ढूढंता हूँ
कुछ पाने के लिये
पर हाथ बढ़ा कर भी
रोक नहीं पाता
फिसलते क्षण;
विरान दिल को
डूबा देती हो अथाह सागर में
तुम्हारे धनुष-बाण घुस आते हैं -
दिल-दिमाग की तंत्रियां झंझोड़ कर
नग्न विचारों को एक झटका देकर
अनकहे भावों की बखिया उधेड़ कर
दे देती हो
एक तिनके का सहारा
जिसका आशय समझ नहीं पाता
मौन वार्ता सुन नहीं पाता
कुछ जान नहीं पाता
सिवा इसके कि -
आकाश से दुधिया चांदनी
जब रिसती हुई गीरती है
धरती के दामन पर
तो यह मदमस्ती बरगलाती
प्रलोभन देती
इसकी लहलहाती फसल
थामे हुये जो तुम खड़ी हो
यह तुम्हारे जिस्म से निकलती
बुलन्द आवाज है
रूह से निकलता
संगीत है।

सितम्बर अंक
हरिहर झा
Melbourne
Australia

Sunday, August 11, 2013

बसंत............. निरज कुमार सिंह

लो आ गई बसंत, छायी बहार...
प्रकृति कर रही अपनी श्रृंगार,
लाल, हरे और पीले, नीले,
ऋतुओं ने हैं सब रंग बिखेरे।
मंद-मंद चलती बयार,
कल-कल करता ये नद-संसार।
पक्षियों की चहचहाहट में,
सिंह की गरजती दहाड़।
लो आ गई बसंत, छायी बहार...

पेड़ों पर कलियाँ लगीं हैं आने,
हरियाली का कंबल ताने,
आम्रमंजरी की सुगंध से,
भ्रमरों के दिल लगे हैं गाने।
कहीं कोयल की कू-कू है तो,
कहीं पपीहे की पीं-पीं,
ऐसा लगता है मानों,
धरती लगी है मुस्कुराने।
लो आ गई बसंत, छायी बहार...



अगस्त अंक
निरज कुमार सिंह
(छपरा, बिहार)