Sunday, January 28, 2018

तुम.... अक्षय मालेगांवकर

आभा गगन की विस्मयकारक 
हुई आज है तेरे कारण
लहराकर तूने केशों को
सीखलाया ऋतु  को है यौवन      ॥१॥

मुख चंद्रमा मुख सौर भी
मुख की कांति  कुछ और ही
मुख भूमंडल के नक्षत्र 
मुख जैसा के ना अन्यत्र      ॥२॥

भूमि स्पर्शित केश तुम्हारे
नयनों मे अंबरी सितारे
दिनकर सम दृष्टि  है तेरी
जुलफे जैसे रात अँधेरी       ॥३॥

चंदन तेरी खुशबू  से महके
देख तूझे मदिरा भी बहके
है पवित्र यूँ गंगा का नीर
नाम तेरा ले चले समीर      ॥४॥

दसो दिशाएँ तूझसे रोशन है
तूझसे ही बढते हर क्षण है
गती को कालगती देती तू
अमर सदा ही लहराती तू    ॥५॥

त्योहारों का गीत तू
हर सुनहरा संगीत तू
हर प्रेमियों की प्रीत तू
है पराजय मे जीत तू      ॥६॥

हँसी है तू रोते नयनों की
है निद्रा तू क्षुधित तनों की
संजीवनी हर एक मर्ज़ में 
धन कूबेर हर एक कर्ज़ में           ॥७॥

भ्रमितों का है तू ही लक्ष्य
है उदाहरण तू विश्वसमक्ष
निःशब्द शब्द है, क्या बात है तू
हर अंतों मे शुरुआत है तू        ॥८॥

हर कोई चाहे वो चाह तू
चलने ना पाएँ वो राह तू
सागर है तू नदियों के लिये
अब तू ही तू सदियों के लिये     ॥९॥

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