Saturday, June 22, 2013

माँ तुम... सौरभ कश्यप

माँ तुम महकती हो
घर में जलती धूप
और मसालों की सौंध से ज्यादा
प्रत्येक कोना घर का
तृप्त है तुम्हारी पावन अनुभुति से।
माँ तुम मीठी हो
गुझिया की मिठास
और मेवामिश्र केसर खीर से ज्यादा
प्रत्येक स्वादरहित तत्त्व
अनुप्राणित है तुम्हारी मधुरता से।
माँ तुम विराट् छत हो
कुटुम्ब की सार संभाल और...
पत्थर गारे की शरण से
ऊँची ज्यादा कहीं
हर प्रसन्नता घर की
सराबोर है तुम्हारे आश्रय से।
माँ तुम जगमगाती हो
खिड़की से आती किरणों की चमक
और दीयों की जगमगाहट से ज्यादा
हर अंधेरा घर का
प्रकाशित है तुम्हारी दीप्ति से।
माँ तुम आनंद हो
गर्मियों में छ्त की ठंडी नींद
और परीक्षा में अव्वल आने से ज्यादा
हर उत्सव आयोजन घर का
खिलखिलाता है तुम्हारे ही
आनंद प्रतिबिम्ब से।
माँ तुम सरल हो
आँगन में चलती चीटियों की कतारों
और लुकाछिपाई के खेल से ज्यादा
हर आड़ी टेढ़ी जटिलताएं घर की
सुलझी हुई है तुम्हारे तिलिस्म से,
तुम्हारे चमत्कार से माँ...।
जून अंक
 सौरभ कश्यप,
 बीकानेर, राजस्थान

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