Saturday, June 29, 2013

माँ, काश! मैं लड़का होती ….. हरप्रीत कौर

माँ, काश! मैं लड़का होती
भँवरो की तरह घूमती,
मस्त पवन में झूमती,
रात के अंधेरों से डरती,
काश! मैं लड़का होती |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो दादी कितनी खुश होती,
लड्डू बटते, ढोल बाजे पिटते,
गली गली में माँ ,तुम्हें दुआएँ मिलती |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो मस्ती से मैं स्कूल जाती ,
देरी की चिंता तुम्हें न सताती ,
जीन्स और शर्ट में बाहर घूमती,
बुरी नज़र लगती और सितारों को मैं चूमती |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो ट्यूशन रात को भी चली जाती,
ही होता मेरा होस्टेल बंद,
बिल्कुल बिंदास, मुझे क्या डर ?
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो नौकरी के लिए दूर भी चली जाती,
रहने की चिंता और दोस्तों का साथ,
नौकरी की खुशी और घर लगता बड़ा पास |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो झेलने पड़ते प्रमोशन के लिए शोषण,
बसों में पड़ते बेफिजूल धक्के,
और न ही रेल में स्पेशल लेडिज कंपार्ट्मेंट |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
तो दहेज की चिंता तुम्हें सताती,
सास के ताने सुनती और दहेज की बलिचढ़ जाती,
काश! मैं लड़का होती |
माँ ! अगर मैं लड़का होती,
मोटरसाइकल के चक्कर जरूर लगाती,
और लड़कियाँ देखकर,
ताने या सीटियाँ नहीं बजाती|
माँ, उन्हें मैं इज्जत देती,
हमारी बहनें ,बेटियाँ और माँ हैं,
इतनी सहनशक्ति और धैर्यता,
वे लड़कियाँ नहीं देवी माँ हैं |
माँ, उनका मैं सम्मान करती ,
भला अपनी माँ, बहन या बेटी को भी कुछ कहता है ?
हर व्यक्ति अगर यही सोचे ,
तो समाज दुष्कर्मों से बचता है |
मत करो नारी जाति का अपमान,
यह पाप और हमेशा खतरे में है उनके प्राण,
मत नोचों, मत बाँटो,
जानवरों की तरह इन्हें मत काटों,
हम भी है इंसान,
इस नरक से बचाने के लिए मुझे भी बना दे लड़का, हे भगवान !




 

जून अंक
                     हरप्रीत कौर
           लुधियाना, पंजाब

Saturday, June 22, 2013

माँ तुम... सौरभ कश्यप

माँ तुम महकती हो
घर में जलती धूप
और मसालों की सौंध से ज्यादा
प्रत्येक कोना घर का
तृप्त है तुम्हारी पावन अनुभुति से।
माँ तुम मीठी हो
गुझिया की मिठास
और मेवामिश्र केसर खीर से ज्यादा
प्रत्येक स्वादरहित तत्त्व
अनुप्राणित है तुम्हारी मधुरता से।
माँ तुम विराट् छत हो
कुटुम्ब की सार संभाल और...
पत्थर गारे की शरण से
ऊँची ज्यादा कहीं
हर प्रसन्नता घर की
सराबोर है तुम्हारे आश्रय से।
माँ तुम जगमगाती हो
खिड़की से आती किरणों की चमक
और दीयों की जगमगाहट से ज्यादा
हर अंधेरा घर का
प्रकाशित है तुम्हारी दीप्ति से।
माँ तुम आनंद हो
गर्मियों में छ्त की ठंडी नींद
और परीक्षा में अव्वल आने से ज्यादा
हर उत्सव आयोजन घर का
खिलखिलाता है तुम्हारे ही
आनंद प्रतिबिम्ब से।
माँ तुम सरल हो
आँगन में चलती चीटियों की कतारों
और लुकाछिपाई के खेल से ज्यादा
हर आड़ी टेढ़ी जटिलताएं घर की
सुलझी हुई है तुम्हारे तिलिस्म से,
तुम्हारे चमत्कार से माँ...।
जून अंक
 सौरभ कश्यप,
 बीकानेर, राजस्थान

Friday, June 14, 2013

एक सपना.. मुकेश कुमार मिश्र

 
हरियाली के बीच
प्रथम बार उसे
जब ईंट-पत्थर दिखा।
शनैः-शनैःखड़ी होती
इमारत दिखी
हृदय में विकास की
एक अलख जगी
आगे बढ़ने की
जीवन जीने की,
ललक जगी॥
उसकी आँखों में भी
एक सपना जगा
पर.................
जैसे –जैसे इमारत
ऊपर उठती गयी,
आकाश को छूती गयी,
उसका सपना
तार-तार होता गया।
जो कुछ .....
अबतक उसका था
धरती,
आकाश,
हवा ,पानी
और हरियाली
उस पर से भी
वह अधिकार खोता गया...
मुकेश कुमार मिश्र
जून अंक

Tuesday, May 14, 2013

बंदे हम खुद भगवान हैं... विवेकानन्द जोशी



खुदा हमारे दिल में है
बंदे हम खुद भगवान हैं
सबसे सच्चे सबसे अच्छे
दुनिया से हम अंजान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
नन्ही हथेली
पर बड़ी है खुशियों की थैली
मन बड़ा “बलवान” है
बंदे हम खुद भगवान हैं
कद तो छोटा रखते हैं
ऊँचाई मगर छूने का हौसला रखते हैं
मुट्ठी में आसमान है
बंदे हम खुद भगवान हैं
ये तुम जानो
ये वो जाने
ताकत को हमारी पहचानें
हम “कल” के हिन्दुस्तान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
मालिक अपनी तकदीरों के
न फकीर हैं सिर्फ लकीरों के
अपनी किस्मत के “आलाकमान” हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
ना जानें कोई जात-पाँत
होती है भई सबसे बात
हम सब “भारत माँ” की संतान हैं
बंदे हम खुद भगवान हैं
मई अंक

विवेकानन्द जोशी
भोपाल, मध्य प्रदेश  



Tuesday, May 7, 2013

भवन की नयी कहानी... राजीव सिंह


भवन की नयी कहानी
थोड़ा काम और लंबी वाणी
अपनी चर्चा लंबी कहानी
दिन भर सोचे लाभ हानि
देखने और दिखाने की वृति
सब खोकर बनायें अपनी कृति
हम और हमारी माया
भौतिक लाभ और सुखमय काया
सेवा की संज्ञा मिलने भर देर
लूट जितना हो देर या सवेर
कोई अगर करे न चर्चा
फँसा दो लगा कर मर्चा
कूद-कूद कर बिछा दो जाल
होगा शांत लूटो भरकर माल...
मई अंक
 राजीव सिंह   

Sunday, May 5, 2013

स्मृतियाँ .... ममता त्रिपाठी



जब उनकी वो धूमल यादें,
खिड़की के झीने परदे से ।
झाँक-झाँककर मुझे देखती,
चिर-उत्सुक अपने नयनों से ॥
तब स्मृतियों का महासमुद्र,
लहर-लहर जग उठता है ।
उर्मि-उर्मि को चूम-चूमकर,
नया झरोखा खुलता है ॥
झीने से झिलमिल अंशुक से,
झीनी यादों का सूत्रपात ।
मधुऋतु की मोहक छवियों पर,
छुप-छुप होता दृष्टिपात ॥
मूक हृदय में छिपी भावना,
मोहकतामय मृदु विस्तार ।
स्मृति-झंकृत हृदय-सितार,
नयनों का मिलन हास-परिहास ।
विह्वल हो इस उदधि मध्य,
प्रतिपल विलसित-विकसित मधुर हास ।
विगत दिनों की करुण मधुरिमा,
वातायन-त्रसरेणु सजा इतिहास ॥ 

Thursday, May 2, 2013

...लेकिन मैं कह नहीं पाया !! (रजनीश कुमार पाण्डेय)


चाहा तो बहुत उसको,
लेकिन कह नहीं पाया॥
बचपन साथ साथ पला,
जवानी साथ साथ बढ़ा।
शायद वो भी चाहती मुझको,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

बचपन उंगली पकड़कर बीता,
जवानी हाथ पकड़कर चलती। 
शायद उसको भी मेरे साथ का था इन्तज़ार,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

आज जब मैं सोचता हूँ बचपन के वो दिन,
आम के छाँव के तले बिताये वो पल।
कहता उससे तो उसे भी आता याद,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

शायद कोई अनजान सा डर था मन में,
जान कर भी उसको, अनजान बनता था उससे।
शायद वो भी पहचान लेती मुझे,
लेकिन मैं कह नहीं पाया।

कमी यही रह गयी मुझमें कि,
रिश्ते निभाने में रह गया पीछे।
खुद आगे बढ़कर हाथ थामता उसका,
तो आज बात कुछ और ही होती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

कहीं न कहीं उसकी भी गलती थी,
क्या मुझे वह नहीं जानती थी?
वो कह दे तो कह दे वरना,
हम कभी एक ना हो पायेंगे,
चाहते तो हम भी हैं उसको बहुत,
लेकिन ये बताये कौन उसको।
चाहतें शायद नया इतिहास रचती,
लेकिन मैं कह नहीं पाया॥

मई अंक