Saturday, April 25, 2020

तीन कविताएँ : अर्चना मिश्रा

सब ढूंढते मजहब
मैं ढूंढता रोटी,
कोई है शीश महलों में
मेरी तो छत टपकती है,
तुम्हें तो छाँव झुलसाती
मिले मुझे धूप में मोती,
तुम्हारे भोग हैं छप्पन
मैं कंकड़ पकाता हूँ,
तुम्हारी बिस्लरी बोतल
मेरा मटके का पानी है,
तुम्हें ए.सी. की ठंडक है
मुझे तो ओस सहलाती,
तुम शावर नहाते हो
मुझे वर्षा की रिमझिम है,
तुम्हें सर्दी में हीटर है
मुझे सूरज ये गुनगुन है,
तुम्हारे मखमली बिस्तर
मेरा धरती बिछौना है,
तुम्हें सुविधा के सपने हैं
मुझे मेहनत सुलाती है।
                           

2.

व्यथित हुआ क्यों मन के मीत
हैं बड़े मधुर जीवन के गीत
चंचल चंद्र की ललित कलाएँ
बढ़ती घटती फिर बढ़ती जाँए
रजनी में राजा सा खिलता
किंतु प्रात: रंक सा ढलता
क्या मानी उसने हार या जीत
व्यथित हुआ क्यों मन के मीत
विटप कभी पुष्पज को धरते
श्रृंगार कभी फूलों का करते
कुम्भला कर सब धरा पे गिरते
फिर पर्णी नव कोपल  सजते
तरुवर के क्या हृदय में पीर
व्यथित हुआ क्यों मन के मीत
तटिनी सबका पोषण करती
कल कल कल बहती रहती
कभी धरा जलमग्न है करती
भूमि में उर्वरता भरती
जलमाला फिर भी न रुकती
व्यथित हुआ क्यों मन के मीत
हैं बड़े मधुर जीवन के गीत
दिनकर की है लालिमा
नव्य रश्मि की कोमलता
स्वच्छंद गगन की उन्मुकता
पुहुप लिए ज्यों कोमलता
झंकार सांस ये जीवन गीत
व्यथित हुआ क्यों मन के मीत।

3.

हृदय आज उठा मचल
देख गगन पनघट पर
चन्द्र की गागर हिलोर
तारे मनहुं हुए जलज
नव दल, नव पुष्प कमल
नव प्रभात किरण नवल
गूंज उठा खगकुल चहल
महक उठा विश्व महल
ओस की ज्यों बूंद सजी
सुमन के जा माथ लगी
भ्रमर करे गूंज गीत
कलियन की तंद्रा टूटि
मोर नृत्य मग्न हुआ
कोकिल ने कूक किया
नभ में नव भानु उदित
अर्चना को थाल सजित
हृदय आज उठा मचल
नव जीवन, नवल जगत
नव शक्ति, हृदय नवल
नवल रश्मि, नव प्रभात
तरुवर के नवल पात
नैन आज हुए सजल
हृदय आज उठा मचल।।
                            अर्चना मिश्रा
अप्रैल अंक 

Thursday, April 23, 2020

ग़ज़ल - बलजीत सिंह बेनाम


माना तुमसे वफ़ा नहीं करते
पर कभी बद्दुआ नहीं करते

मसअला कितना भी पेचीदा हो
दरमियाँ तीसरा नहीं करते

जिनके दिल में ख़ुदा का ड़र बाकी
प्रेमियों को जुदा नहीं करते

गर तुम्हारी है ज़िद न आओगे
जाओ हम भी सदा नहीं करते

बज़्म में बेसबब शरीफ़ों की
तल्ख़ बातें किया नहीं करते


बलजीत सिंह बेनाम 
पुरानी कचहरी कॉलोनी, हाँसी
अप्रैल अंक 

राम काज में व्यस्त हूँ! यमुना धर त्रिपाठी

राम काज में व्यस्त हूँ!


मौन हूँ,
प्रसन्न हूँ,
स्वयं में ही मस्त हूँ,
राम काज में व्यस्त हूं!

निःशब्द हूँ,
निर्द्वन्द्व हूँ,
भविष्य से आश्वस्त हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

स्वानन्द हूँ,
स्वच्छंद हूँ,
स्वयं ही विश्वस्त हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

स्वतंत्र हूँ,
गणतंत्र हूँ,
स्वयं का महत्व हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

सजीव हूँ,
सुगन्ध हूँ,
प्रकृति का ही तत्व हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

साकार हूँ,
सभार हूँ,
धातु का तारत्व हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

अनुबन्ध हूँ,
अवतार हूँ,
जनमानस का अपनत्व हूँ,
राम काज में व्यस्त हूँ!

©यमुना धर त्रिपाठी
PGT हिंदी एवं संस्कृत
बरोडा पब्लिक स्कूल
वड़ोदरा, गुजरात।

अप्रैल अंक 

Thursday, April 16, 2020

प्रकृति माँ - सरोजिनी पाण्डेय



एक बात बतानी है तुमको, 
एक कथा सुनानी है सबको 

बचपन यदि नटखट होता है 
माता से दंडित होता है ,
संतति को गुणी बनाने का 
जिम्मा माता का होता है। 

जननी होती है धैर्यवान्  
वह शिशु पर स्नेह लुटाती है, 
पर बहुत अधिक नटखटपन से
वह श्रमित -क्लांत हो जाती है। 

नटखट को दंडित करने पर 
वह स्वयं दुखी तो होती है ,
कर्तव्य मान इसको अपना, 
वह वज्र हृदय पर रखती है। 

रखकर बालक को बंधन में 
वह सांस चैन की लेती है,
मन पर होता है बोझ
किन्तु काया विश्रांति पाती है।

कान्हा के नटखटपन से जब 
माता जसुमति थी दुखी हुई ,
कुछ समय पुत्र को बंधन में 
रख देने को वह विवश हुई। 

हम सब प्रकृति की संतति हैं, 
वह सुजला- सफला माता है ,
हमको अनुशासन में रखना 
इस माता को भी आता है। 

अपनी माता के अंगों को 
निज कर्मों से कुचला हमने ,
कुछ दंड हमें वह दे डाले ,
मजबूर किया उसको हमने। 

अब बंधन में हम को रख कर, 
देखो यह माँ सुस्ताती  है ,
ले स्वच्छ वायु में कुछ सांसे,
वह ताजा दम हो जाती है। 

नदिया के मैले आंचल को 
कुछ धोकर वह मुस्काती है,
माथे की सूरज -बिंदिया को 
वह थोड़ा सा उजलाती है। 

चंदा- तारों के गहने को  
घिस -घिस  कर फिर चमकाती है,
हरियाली उसके लहंगे की
झिलमिल झिलमिल लहराती है। 

सुनकर विहगों का मधुर राग
उसकी थकान मिट जाएगी,
पाकर एक नई स्फूर्ति तन में 
वह फिर हमको दुलराएगी। 

मोहन ने मां के बंधन को 
हंसते-हंसते स्वीकार किया, 
वह बंधन में क्या आ जाता? 
पूतना का जिसने नाश किया। 

बंधन में बंधे -बंधे उसने 
अश्विन कुमार को तार दिया ,
ओखली फंसा दो वृक्षों में ,
अर्जुन वृक्षों को उखाड़ दिया। 

मां के प्रदत्त इस बंधन को,
आओ हम भी हंसकर सह लें,
कोरोना की मारक क्षमता का 
हम भी समूल संहार करें। 

संभव है यह बंधन हमको 
वन में नवजीवन लाए,
कुछ अनुशासित हो जाएं हम, 
सृष्टि का भी संरक्षण हो, 
माता के स्नेहामृत को पा 
हम सबका उत्तम पोषण हो।। 

सरोजिनी पाण्डेय

अप्रैल अंक 

Monday, April 13, 2020

फागुनी बयार: शैलजा त्रिपाठी

फागुनी बयार एक दस्तक दे जाती है
भूल चुके किस्सों को ताजा कर जाती है, 

रेत और माटी सा गीला था वो बचपन 
सेमल के फूल और चिलबिल बन जाती है

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 


चूड़ियों के टुकड़े गोल    पत्थर के गिट्टे , 
गुड़िया की चूनर में गोट लगा जाती है... 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है. 

स्लेट - चाक, तख्ती, मिट्टी का बुदका 
सेठा और नरकुल की कलम बन जाती है,

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

गर्माती धूप में, खेल, हँसी, भाग-दौड़ 
साखियों से मिलने का उत्सव बन जाती है 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

पूजा की थाली में बेलपत्र, बेर और 
भोले के भांग की ठंडाई बन जाती है... 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

नीम, आम, नींबू के फूलों की खुशबू ले 
पेड़ो से टपके, टिकोरे बन जाती है...

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

भुने हुए बेसन की सोंधी सी खूशबू है 
लड्डू , पुए, बर्फी , गुझिया बन जाती है.. 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

मंजीरा, झांझ और ढोलक की थाप पर 
जोगिरा, कबीर, फाग, बिरहा बन जाती है.. 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

लाल, बैंजनी, पीले, रंगों को साथ लिए 
गाल पर गुलाल, मस्त होली बन जाती है... 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

होली की मस्ती में छोटी सी चिंता बन 
दसवीं के बोर्ड की परीक्षा बन जाती है... 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है 

चिड़ियों के चहक और कोयल की कूक बन 
धूल भरे चैत की, आहट बन जाती है 

फागुनी बयार कुछ याद दिला जाती है

         शैलजा त्रिपाठी
अप्रैल अंक 

Sunday, April 12, 2020

माँ - यमुना धर त्रिपाठी

!!माँ!!
साथ रहे तन्हाइयों में,
हृदय की गहराइयों में,
विपदा भरी परिस्थितियों में,
हर दिवसों और हर तिथियों में,
करे सामना हर संकटों का,
है समाधान हर विकटों का,
वो कौन सा है नेह,
वो है माँ का स्नेह।

अश्रु की बारिशों में,
द्वेष की तारिशों में,
देती है हरदम साथ मेरा,
हाथों में लेकर हाथ मेरा,
कृतज्ञ हूं मैं उसका,
उस पर कुर्बान सब कुछ अपना,
जीवन भर करता रहूंगा, बस उसकी आराधना,
क्षण भर में अपना सब कुछ, उसने मुझ पर बलिहार किया,
सबसे लड़कर, सबसे बढ़कर, उसने मुझसे ही प्यार किया।
मुझे है सब मालूम,
मुझे है सब ज्ञात,
वो कौन सा है नेह।
वो है माँ का स्नेह।।

यमुना धर त्रिपाठी

बरोडा पब्लिक स्कूल,
वड़ोदरा, गुजरात।

अप्रैल अंक 

Saturday, April 11, 2020

मूल : ममता त्रिपाठी

सरल नहीं है
मूल को भूलना। 
सरल है यह भ्रम पालना
भूल गये हैं मूल को
पर फुनगी पर चढ़कर भी
पुलई पर खिलकर भी
मूल से आना पड़ता है
मूल तक आना पड़ता है।
मूल पर झड़कर।
मूल ही बन जाना पड़ता है।
पर जीवन को
जीने के लिए
सुख को खोजने
और पालने के लिए
पालना पड़ता है भ्रम
मूल को भूलने का।
उसके अस्तित्वबोध को
नकारने का।
@ममता त्रिपाठी 

Friday, April 10, 2020

जीवन प्रवाह : ममता त्रिपाठी

जीवन है
एक प्रवाह
सूक्ष्म से स्थूल
स्थूल से सूक्ष्म
एक चक्र है
लघु से गुरु
गुरु से लघु
समस्या तभी
आती है
जब हम
अपने गुरुत्व में
लघु को
भूल जाते हैं
स्थूल के महाकाया में
खोकर
सूक्ष्म को
अनदेखा करते हैं।
जब कर्म को
केवल
कर्मेन्द्रियों तक
समेटते हैं
और
ज्ञानेन्द्रियों की
विषयों के प्रति
गति को
समझना नहीं चाहते।
जब केवल
साक्षी के साक्ष्य पर ही
अपराधों को
अपराध समझते हैं 
प्रज्ञापराध पर
लम्बी चुप्पी
गहन मौन
साध लेते हैं।
अब बताइये कि
भला कौन
दहन होगा
उस आग में
जिसे अंतस् में
पालकर हम
प्रशांत दिखते हुये
सभ्य बने हुये हैं।
एक दिन
उठेगी ही
वह ज्वाला
जिसकी आज हम
आग लिये बैठे हैं।
#ममतात्रिपाठी

पलाश :- ममता त्रिपाठी

ग्रीष्म में दहकते वनों की
शोभा पलाश
चट्टानों में, वीरानों में
एकाकी हो खिलते पलाश
सूख चुकी आशाओं में
तुम जंगल की आग बन
फिरते पलाश
मृत-आशाओं की
जिजीविषा तुम
तुम्हीं नव-आस
जंगल के एकाकी पलाश।
तुम घोर रुदन में
मधुर हास
बुझती जिजीविषाओं के
जीवन-प्रकाश।
तुम निर्जन प्रकृति के
मुक्त हास।
तुम शुष्क भूमि के
जीवन-आधार।
तुम नैराश्य उदधि के
आशान्वित पतवार।
तुम उगते हो, तुम खिलते हो
एकाकी ही शत-शत बार।
शुष्क हो रहे वन-विटपों में
तुमसे ही वासंती बयार।

डॉ. ममता त्रिपाठी 

Wednesday, April 8, 2020

हिन्दुस्तान : दो भाग - विवेक कुमार

देश वही बस बदल गये हम,

धर्म-जाति के भागो में।
अपनो ने अपनापन भूला,
बाँट लिया दो भागो में।।



कभी सिन्धु तक फैला भारत,
आज बटा कुछ भागो में।
अपनो ने कश्मीर भी बाँटा,
बाँट लिया दो भागो में।।



सत्ता का लालच सिर पर, 
खूब चढा उन भागो में।
अपनो ने जिन्ना-जवाहर बाँटे, 
बाँट लिये दो भागो में।।



आजादी के उन वीरो को,
भूल गये कुछ यादों में।।
अपनो ने हिन्दुस्तान भी बाँटा,
बाँट लिया दो भागो में।। 



आजादी की वो दुखी शाम थी,
घुटी-घुटी कुछ यादो में।
अपनो ने उस खुशी को बाँटा,
बाँट लिया दो भागो में।।



देश वही बस सोच थमी है,
उस दौर की यादो में।
अपनो की लालच ने बाँटा,
बाँट लिया दो भागो में।।