ग्रीष्म में दहकते वनों की
शोभा पलाश
चट्टानों में, वीरानों में
एकाकी हो खिलते पलाश
सूख चुकी आशाओं में
तुम जंगल की आग बन
फिरते पलाश
मृत-आशाओं की
जिजीविषा तुम
तुम्हीं नव-आस
जंगल के एकाकी पलाश।
तुम घोर रुदन में
मधुर हास
बुझती जिजीविषाओं के
जीवन-प्रकाश।
तुम निर्जन प्रकृति के
मुक्त हास।
तुम शुष्क भूमि के
जीवन-आधार।
तुम नैराश्य उदधि के
आशान्वित पतवार।
तुम उगते हो, तुम खिलते हो
एकाकी ही शत-शत बार।
शुष्क हो रहे वन-विटपों में
तुमसे ही वासंती बयार।
डॉ. ममता त्रिपाठी
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