एक कथा सुनानी है सबको
बचपन यदि नटखट होता है
माता से दंडित होता है ,
संतति को गुणी बनाने का
जिम्मा माता का होता है।
जननी होती है धैर्यवान्
वह शिशु पर स्नेह लुटाती है,
पर बहुत अधिक नटखटपन से
वह श्रमित -क्लांत हो जाती है।
नटखट को दंडित करने पर
वह स्वयं दुखी तो होती है ,
कर्तव्य मान इसको अपना,
वह वज्र हृदय पर रखती है।
रखकर बालक को बंधन में
वह सांस चैन की लेती है,
मन पर होता है बोझ
किन्तु काया विश्रांति पाती है।
कान्हा के नटखटपन से जब
माता जसुमति थी दुखी हुई ,
कुछ समय पुत्र को बंधन में
रख देने को वह विवश हुई।
हम सब प्रकृति की संतति हैं,
वह सुजला- सफला माता है ,
हमको अनुशासन में रखना
इस माता को भी आता है।
अपनी माता के अंगों को
निज कर्मों से कुचला हमने ,
कुछ दंड हमें वह दे डाले ,
मजबूर किया उसको हमने।
अब बंधन में हम को रख कर,
देखो यह माँ सुस्ताती है ,
ले स्वच्छ वायु में कुछ सांसे,
वह ताजा दम हो जाती है।
नदिया के मैले आंचल को
कुछ धोकर वह मुस्काती है,
माथे की सूरज -बिंदिया को
वह थोड़ा सा उजलाती है।
चंदा- तारों के गहने को
घिस -घिस कर फिर चमकाती है,
हरियाली उसके लहंगे की
झिलमिल झिलमिल लहराती है।
सुनकर विहगों का मधुर राग
उसकी थकान मिट जाएगी,
पाकर एक नई स्फूर्ति तन में
वह फिर हमको दुलराएगी।
मोहन ने मां के बंधन को
हंसते-हंसते स्वीकार किया,
वह बंधन में क्या आ जाता?
पूतना का जिसने नाश किया।
बंधन में बंधे -बंधे उसने
अश्विन कुमार को तार दिया ,
ओखली फंसा दो वृक्षों में ,
अर्जुन वृक्षों को उखाड़ दिया।
मां के प्रदत्त इस बंधन को,
आओ हम भी हंसकर सह लें,
कोरोना की मारक क्षमता का
हम भी समूल संहार करें।
संभव है यह बंधन हमको
वन में नवजीवन लाए,
कुछ अनुशासित हो जाएं हम,
सृष्टि का भी संरक्षण हो,
माता के स्नेहामृत को पा
हम सबका उत्तम पोषण हो।।
सरोजिनी पाण्डेय
अप्रैल अंक
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