Monday, December 27, 2010

वन्दनीय


वन्दनीय वह निष्कम्प दीप है,
जो झंझावातों में जलता।
वन्दनीय शाश्वत प्रदीप है,
जो जगती का तम हरता।
वन्दनीय वह सागर-सीप है
गर्भ में जिसके मोती पलता।
अभिनन्दनीय वह मानस भी है
जो इन्हें स्नेह से सींचा करता।।

1 comment:

ममता त्रिपाठी said...

अच्छी कविता है-
सच में अभिनन्दन तो उसका करना चाहिए, जो सर्जक है।