वक्त से दौड़ है वक्त को पाने के लिए
वक्त ही कहाँ है किश्मत आजमाने के लिए
पहिया वक्त का मानो घूमता ही चला
जब हम भी घूमे उसके साथ में
तब आगे बड़ा ज़िन्दगी का सिलसिला
कभी सोचा थोड़ा थम जाए ए
तो गतिमान हुई रफ्तार बिना कोई अवरोध के
कुछ लम्हे कैद करने थे पर वो न रुका
सोच कर मन विचलित हुआ
भर गया दिल क्रोध से
धैर्य की हत्या हुई
खुद से लिए हुए प्रतिशोध से
दुखों के जब बादल छाए
पुराने ज़ख्म फिर भर आए
अवशेष रह गए हैं बस अब खुद के आवेश के
द्वेष मिटे पीड़ा मिटे पश्चाताप के भावेश से
संताप भरा करुणा मन विरक्त है स्नेह के लिए
दौड़ है वक्त से वक्त को पाने के लिए
वक्त ही कहाँ है किश्मत आजमाने के लिए
अमित निरंजन
जून अंक
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