आह! मैं मजदूर,
आह! मैं मजबूर,
कभी मैं भटकता,
चौराहों पर टहलता,
काम की तलाश में,
दिन भर भटकता,
सोच में मैं डूबता,
घर में मेरे इक चूल्हा,
होगा राह मेरी तकता,
कभी रिक्शा मैं ढोता,
कभी सिर पर बोझ होता,
चिलचिलाती उस धूप में,
लड़ता, संघर्ष मैं करता,
उस तपती दुपहरी में,
उन लू के थपेड़ों में,
हाँ! लड़ता, संघर्ष मैं करता,
रोटी के दो टुकड़े,
हाँ! बस ये रोटी के टुकड़े,
हवा का थपेड़ा बन, ले जाता,
मीलों, कोसों दूर पटकता,
फिर भी न पूरा कर पाता,
मेरी माँ की दवाई,
पिता के पैरों की बवाई,
मेरी बहन की शादी,
मेरी जीवनसंगिनी,
तेरे वो सतरंगी सपने,
मेरे बच्चों के खिलौने,
स्कूल की फीस,
नये कपड़े, नये जूते,
कभी सबके लिए,
तृप्त कर देने वाला भोजन,
लेकिन! अब तो मेरा ये पेट,
अतड़ियाँ, पीठ से लग चलीं,
हाँ! अब हाथ मेरे काँपते,
साँसे मेरी अब फूलती,
अब शरीर मेरा ये थकता,
आह! मैं मजदूर,
आह! मैं मजबूर।
अर्चना मिश्रा
मई अंक
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