प्रकृति से खिलवाड़ की
कीमत चुका रहे है सब
महामारी के ताण्डव पर
हाहाकार मचा रहे है अब।
अन्तरिक्ष छूने की दौड़ मे
अपनी धरती भूल गए
शक्ति प्रदर्शन की होड़ में
मानवता को भूल गए।
प्रकति क्रन्दन कर रही
धरा विचलित हो रही
त्राहि त्राहि करके यूं
मनुष्यता अब सिसक रही।
प्रकति कहे स्वर्ग रचूँ मैं
तुम उसको नर्क बनाते
धरती कहे किस सीमा को
तुम देश जाति मे बाँधते।
मैने तो इन्सान बनाया
तुमने कब्रीस्तान बनाया
मैंने जीव प्रेम सिखलाया
तुमने कच्चा पक्का खाया।
अभी समय है यही ठहर जाओ
घोर विपदा से बाहर आओ
प्रेम करो वृक्ष जीव से
महामारी का अस्तित्व मिटाओ।
-निरुपमा मेहेरोत्रा
मई अंक
2 comments:
Good Nirupma ji, nice piem on current situation.
Thanks Mamtaji
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