कलम शोर मचाती नहीं
शब्द गुनगुनाते नहीं
किताबें पड़ी हैं मगर,
किसी से पढ़ी जाती नहीं।
लेखक हो मशहूर
खर्चा पाते नहीं
लिखावट से इबादत की
महक अब आती नहीं।
कलम दुनिया बदल दें
ऐसा अब होता नहीं
प्रेमचंद लिए नए जूते
इसीलिए रोता नहीं।
' सत्य ' स्वयं गुरूर में
कलम चुभोता नहीं
अंतः कविता पेश है
कवि का भरोसा नहीं।
यथार्थ जैन
मई अंक
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