कल रास्ते पे दिख गया था एक कंचा,
मैंने कहा अरे कंचे तुम हो अभी तक ?
दिखे हो कितने बरसो के बाद।
ठीक तो हो ना ! कहाँ रहे अब तक ?
कंचा बोल पड़ा मैंने तो वही खड़ा हु दोस्त अब तक, तुम ही निकल गए कही दूर अब तो।
कुछ याद भी है अपने बचपन के दिन,
वो मिट्टी से लिपटकर भी कंचे का खेल।
कंचे के जीत का वो हुंकार भरा जश्न,
अपरान्ह होते की मेरे इर्द गिर्द तुम्हारी टोली का मेल ।
एक एक कंचे के लिए वो नोक झोंक, फिर झगड़ना,
नन्ही आँखों के वो निर्दोष ओश के बूंदो के तरह गिरते आंसुओ की रेल ।
फिर तुरंत आंसू पोंछ कर दीया-बाती सी गाढ़ी दोस्ती,
आठ आने के छोटे से चॉकलेट को बाँटने का हुनर से हुआ मेल ।
बार बार कंचे को गिनना और हर रंग के कंचे को अलग अलग रखना,
भूल गए क्या कंचे का उधार लेना और फिर "कल दे दूंगा" के वादों का अमरबेल ।
माँ से न जाने कितने बहाने बना कर कंचे खरीदना, हाय कहाँ छोड़ आये तुम दोस्त।
कंचे के हर बाण से मैं भीष्म की तरह बिंध गया।
इससे पहले की मैं अपने तर्कों के बाण चलाता,
कंचा बोल पड़ा माफ़ करना दोस्त जरा सा भावुक हो गया,
अब तुम्हारे सवाल का जवाब देता हु।
मैं अभी भी पड़ा रहता हु तुम्हारे आस पास,
पर तुम शायद देख नहीं पाते हो।
अब मैं तुम्हारे हाथ का कंचा नहीं बल्कि मार्बल कहलाता हूँ,
प्रमोशन हुआ है दोस्त मेरा तुम भी मार्बल ही कहना अब तो ।
कही कंचा कह दिया तो असभ्य, गवाँर माने जाओगे तब तो ।
अब में बड़े बड़े शो रूम के मोठे मोठे कांच के पीछे रहता हूँ ।
सुन्दर सुन्दर पेबल के बीच तो कभी एक फीटिया सजावटी बाँसो के नीचे,
दूधिया रौशनी में मेरा रंग क्या निखरता है, तुम क्या जानो।
हां एक बिदेशी खेल में भी कभी कभी काम आता हूँ ।
एक ही रंगो में अब पाया जाता हु अब अक्सर,
मेरे बीच में जो चाँद या तारे जैसा आकर हुआ करता उसे बहुत याद करता हूँ ।
पर दोस्त, मेरी जन्नत तो वो चन्दन जैसा मिट्टी और तुम्हारी नन्हे हाथ में थी ।
तुम्हारे गंदे हाफ पैंट के पॉकेट में थी, वो छोटी से डिबिया में थी ।
अब वो बात कहाँ कि मुझे जीतने और संभाल के रखने कि खनक हो ।
मुझसे खुद को अमीर समझना और पाकर किसी आँखे में चमक हो ।
अभी कंचे कि बात ख़तम हो ही रही थी कि वहाँ से एक गाडी गुजर गया,
और उसके पहिये से छिटक कर न जाने कंचा किधर गया।
मैंने उसे ढूंढ़ने कि कोशिश भी नहीं कि।
क्या बेकार कि बाते कर गया वो, भला मुझ जैसे शहरी का अब कंचे से क्या काम ।
अब तो लोकल ट्रेन/बस/टी बी सीरियल के आने से टाइम का पता करता हूँ,
वो जाहिलियत कहाँ कि सूरज के रौशनी से पता करे कि कब नौकर बनना है,
कब बेकारी और आर्थिक मंदी से भयभीत, लाचार पुत्र, पिता एवं पति बनकर घर लौटना है ।
बढ़ती ज़िम्मेदारिया, रेत से फिसलती उम्र की चुभन कैसे कहे कोई,
बचपन के सुनहरी गलियों के नर्म यादो में कब तक रहे कोई।
पर सच में यारो कंचे चोट कर गया बड़ी भारी, वो दिन फिर नहीं आएंगे इसका रहेगा दुःख उम्र सारी।।।
सत्य
मई अंक
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