Saturday, May 16, 2020

आह! मैं मजदूर :अर्चना मिश्रा

आह! मैं मजदूर,

आह! मैं मजबूर,
कभी मैं भटकता,
चौराहों पर टहलता,
काम की तलाश में,
दिन भर भटकता,
सोच में मैं डूबता,
घर में मेरे इक चूल्हा,
होगा राह मेरी तकता,
कभी रिक्शा मैं ढोता,
कभी सिर पर बोझ होता,
चिलचिलाती उस धूप में,
लड़ता, संघर्ष मैं करता,
उस तपती दुपहरी में,
उन लू के थपेड़ों में,
हाँ! लड़ता, संघर्ष मैं करता,
रोटी के दो टुकड़े,
हाँ! बस ये रोटी के टुकड़े,
हवा का थपेड़ा बन, ले जाता,
मीलों, कोसों दूर पटकता,
फिर भी न पूरा कर पाता,
मेरी माँ की दवाई,
पिता के पैरों की बवाई,
मेरी बहन की शादी,
मेरी जीवनसंगिनी,
तेरे वो सतरंगी सपने,
मेरे बच्चों के खिलौने,
स्कूल की फीस, 
 नये कपड़े, नये जूते,
कभी सबके लिए,
तृप्त कर देने वाला भोजन,
लेकिन! अब तो मेरा ये पेट,
अतड़ियाँ, पीठ से लग चलीं,
हाँ! अब हाथ मेरे काँपते,
साँसे मेरी अब फूलती,
अब शरीर मेरा ये थकता,
आह! मैं मजदूर,
आह! मैं मजबूर।

अर्चना मिश्रा

मई अंक

नाद : पण्डित अखिलेश कुमार शुक्ल

प्रेयसी के कंगन,

भौरों की गुंजन,

कोयलों की कुंजन,

खिला हुआ उपवन,

हर्षित हुआ ये मन,

नदियों की कल-कल,

बच्चों की चहल-पहल,

वृक्षों का फल,

सुर-सरि का बहता हुआ,

संगम का ये जल,

पूछ रहा स्वर में आज....

क्या यही तेरा नाद है ?


टूटते कंगन,

अश्रुओं का क्रन्दन

भाव का स्पन्दन,

बुद्धजीवियों का अवनमन,

लघुता की निर्लज्ज पहल,

होता अपने आप सफल,

मानवता की दुर्भिक्ष आग,

चेहरों में लिपटा लिबास,

उजड़े चमन का यह पराग,

कामिनियों का वीतराग,

भैरवी का रचित स्वांग,

जड़ता का यह मूल नाश,

इंसानों में उत्पन्न विषाद,

पूछ रहा स्वर में आज,

क्या यही तेरा नाद है ?


होंठ में सुरा,

पीठ में छूरा,

धूंधली हुयी तस्वीर,

फीकी पड़ी लकीर,

नीरस हुआ यह मन,

पतझड़ भरा बसन्त,

दुर्भिक्ष सा ये काल,

अकाल बना ब्याल,

अनाथ हुए बच्चें,

बुझता हुआ चिराग,

चीखती विधवा विलाप,

श्मशान की ये आग,

बता रहा प्रतिपल तुझे,

काग का ये स्वर,

हाँ ! यही तेरा नाद है ।



मिट गया अकाल,

बुझ गया मसान,

सिंचित हुआ ये वन,

महकती उपवन,

निर्बल हुए सबल,

मेहनत का मिला फल,

बोल उठे कंगन,

चहक उठी आंगन,

नूपूर आज बज रहा,

प्रणय-मिलन हो रहा,

पतंग आज उड़ चली,

बयार बहने लगी,

बादल उमड़ने लगा,

द्रुति गर्जना करने लगा,

उनमुक्त स्वर में आज फिर,

प्रकृति पूछने लगी....

क्या यही तेरा नाद है ?


स्वपन से परे,

नींद से भरें,

अकिंचन सा खड़ा मैं,

रूदन भरें गलें,

कंपित शरीर से,

सहसा मैं बोल पड़ा.......

हाँ ! यही मेरा नाद है ।

हाँ ! यही मेरा नाद है ।

पण्डित अखिलेश कुमार शुक्ल

मई अंक

मजदूर सबसे ज्यादा मजबूर : भगत सिंह

गरीब मजदूर क्या बस , मज़बूरी बन गया हूं ।
वक़्त की मार ऐसी है बस,  खिलौना बन गया हूं ।।

मेहनत करता हूँ खून पसीने से पर,  सपने तो तुम्हारे ही पूरे करता हूँ ।
पेट या जेब मेरी भले ही मेरी रहे खाली पर,  तिजोरी तो अमीरों की ही भरता हूँ ।।

काम करने के मंशा है देशऔर प्रदेशों मैं पर, अपमानित होने की नही ।
दुखद है। हूँ चाहे किसी भी प्रदेश का  पर ,  U. P वाला भईया या बिहारी ही पुकारा जाता हूं ।।

गर्व तो होता है सुन कर ।
हाँ उसी भूमि का हूँ जो धरती है पौराणिक।।

श्रीराम, श्याम जी,बुद्ध ओर महावीर वहां के।
आर्यभट्ट, चाणक्य और चंद्रगुप्त जहाँ थे।।

गंगा ,यमुना,अयोध्या, मथुराओर काशी वहां के।
बोधगया, नालंदा ओर वैशाली जहाँ थे।।

देश मे राज करने वाले (प्रधानमंत्री) सबसे ज़्यादा वहां के।
राज चलाने वाले (IAS/PCS/ प्रोफेसर) भी सबसे ज़्यादा वहां के ।।

पर करें क्या हमारे हिस्से मैं तो, जन्म जन्मान्तर गरीबी, अज्ञानता ओर विषमता ही आयी।
सदियों से कर रहे थे, आज भी कर रहे है, बरसों बरस करते रहेंगे।।

गरीब मजदूर क्या बस मज़बूरी बन गया हूं ।
वक़्त की मार ऐसी है बस खिलौना बन गया हूं ।।


भगत सिंह




मई अंक

Tuesday, May 12, 2020

कर्म कर-सत्कर्म कर- यमुना धर त्रिपाठी


एक नवीन आरम्भ कर,
प्रयास से प्रारंभ कर,
हार से न डर कभी,
क्लिष्ट हो या हो हठी,
श्रम कर प्रयास कर,
कोशिशें अनायास कर,
कर्म कर-सत्कर्म कर।
कर्म कर-सत्कर्म कर।।1।।


श्रेष्ठ कर्म आज कर,
भूत की न बात कर,
आगमन से तू न डर,
निश्चिन्त हो रह निडर,
दुर्गम दुरूह पथ पर,
त्यागकर आगे निकल,
पर कर्म कर-सत्कर्म कर।
कर्म कर-सत्कर्म कर।।2।।

अग्नि सा उन्नत अटल,
हो गगन सा निश्छल,
सागर सा होकर गंभीर,
पर्वत सा होकर अति धीर,
सरिता सा निर्झर-उत्कल,
वायु सा हो व्याप्त सरल,
पर कर्म कर-सत्कर्म कर।
कर्म कर-सत्कर्म कर।।3।।

कठोर हो, निर्विघ्न हो,
अति सौम्य हो, उद्विग्न हो,
प्रसन्न हो, अति मग्न हो,
एकांत हो, संलग्न हो,
अतिशिष्ट हो, उन्मत्त हो,
अतिरिक्त हो, संतप्त हो,
पर कर्म कर-सत्कर्म कर।
कर्म कर-सत्कर्म कर।।4।।

युद्ध में सन्नद्ध हो,
काव्य छंदोबद्ध हो,
लक्ष्य हेतु प्रतिबद्ध हो,
नीति से आबद्ध हो,
चाहे जो प्रारब्ध हो,
लेखन चरणबद्ध हो,
पर कर्म कर-सत्कर्म कर।
कर्म कर-सत्कर्म कर।।5।।


यमुना धर त्रिपाठी
मई अंक

कंचा- सत्य रंजन

कल रास्ते पे दिख गया था एक कंचा, 
मैंने कहा अरे कंचे तुम हो अभी तक ?
दिखे हो कितने बरसो के बाद।
ठीक तो हो ना ! कहाँ रहे अब तक ?

कंचा बोल पड़ा मैंने तो वही खड़ा हु दोस्त अब तक, तुम ही निकल गए कही दूर अब तो।

कुछ याद भी है अपने बचपन के दिन,
वो मिट्टी से लिपटकर भी कंचे का खेल।

कंचे के जीत का वो हुंकार भरा जश्न,
अपरान्ह होते की मेरे इर्द गिर्द तुम्हारी टोली का मेल ।

एक एक कंचे के लिए वो नोक झोंक, फिर झगड़ना,
नन्ही आँखों के वो निर्दोष ओश के बूंदो के तरह गिरते आंसुओ की रेल ।

फिर तुरंत आंसू पोंछ कर दीया-बाती सी गाढ़ी दोस्ती,
आठ आने के छोटे से चॉकलेट को बाँटने का हुनर से हुआ मेल ।

बार बार कंचे को गिनना और हर रंग के कंचे को अलग अलग रखना,
भूल गए क्या कंचे का उधार लेना और फिर "कल दे दूंगा" के वादों का अमरबेल ।

माँ से न जाने कितने बहाने बना कर कंचे खरीदना, हाय कहाँ छोड़ आये तुम दोस्त।

कंचे के हर बाण से मैं भीष्म की तरह बिंध गया। 
इससे पहले की मैं अपने तर्कों के बाण चलाता,
कंचा बोल पड़ा माफ़ करना दोस्त जरा सा भावुक हो गया,
अब तुम्हारे सवाल का जवाब देता हु।

मैं अभी भी पड़ा रहता हु तुम्हारे आस पास,
पर तुम शायद देख नहीं पाते हो।
अब मैं तुम्हारे हाथ का कंचा नहीं बल्कि मार्बल कहलाता हूँ,
प्रमोशन हुआ है दोस्त मेरा तुम भी मार्बल ही कहना अब तो ।
कही कंचा कह दिया तो असभ्य, गवाँर माने जाओगे तब तो ।
अब में बड़े बड़े शो रूम के मोठे मोठे कांच के पीछे रहता हूँ ।
सुन्दर सुन्दर पेबल के बीच तो कभी एक फीटिया सजावटी बाँसो के नीचे,
दूधिया रौशनी में मेरा रंग क्या निखरता है, तुम क्या जानो।
हां एक बिदेशी खेल में भी कभी कभी काम आता हूँ ।
एक ही रंगो में अब पाया जाता हु अब अक्सर, 
मेरे बीच में जो चाँद या तारे जैसा आकर हुआ करता उसे बहुत याद करता हूँ ।

पर दोस्त, मेरी जन्नत तो वो चन्दन जैसा मिट्टी और तुम्हारी नन्हे हाथ में थी ।
तुम्हारे गंदे हाफ पैंट के पॉकेट में थी, वो छोटी से डिबिया में थी ।
अब वो बात कहाँ कि मुझे जीतने और संभाल के रखने कि खनक हो ।
मुझसे खुद को अमीर समझना और पाकर किसी आँखे में चमक  हो ।

अभी कंचे कि बात ख़तम हो ही रही थी कि वहाँ से एक गाडी गुजर गया, 
और उसके पहिये से छिटक कर न जाने कंचा किधर गया।

मैंने उसे ढूंढ़ने कि कोशिश भी नहीं कि। 
क्या बेकार कि बाते कर गया वो, भला मुझ जैसे शहरी का अब कंचे से क्या काम ।
अब तो लोकल ट्रेन/बस/टी बी सीरियल के आने से टाइम का पता करता  हूँ,
वो जाहिलियत कहाँ कि सूरज के रौशनी से पता करे कि कब नौकर बनना है,
कब बेकारी और आर्थिक मंदी से भयभीत, लाचार पुत्र, पिता एवं पति बनकर घर लौटना है । 

बढ़ती ज़िम्मेदारिया, रेत से फिसलती उम्र की चुभन कैसे कहे कोई,
बचपन के सुनहरी गलियों के नर्म यादो में कब तक रहे कोई।

पर सच में यारो कंचे चोट कर गया बड़ी भारी, वो दिन फिर नहीं आएंगे इसका रहेगा दुःख उम्र सारी।।।
सत्य
मई अंक