सर्दी की रात
कमरे में घुप्प अंधेरा
बदन पर कुछ कपड़े
और भारी लिहाफ...
कांच की खिड़की से
रिश्तों के
टूटते तारे नजर
आते हैं...
देखो.. न!!!
चांद भी चलते हुए
खिड़की पर आ गया
चांदनी कमरे में बिछ गई
दीवार पर
साफ साफ
तुम्हारे
वादे दिखने लगे हैं
आज बस कल से एक ज्यादा....
अमावस से पूर्णिमा तक
चाँद के साथ ही
बढ़ते जाते हैं तुम्हारे वादे
फिर चाँद जैसे जैसे
कम होता गया
वैसे तुम्हारा आना भी....
काश!!
तुम्हारी गति चाँद सी होती
रोज मिलते तो सही
जाते भी
तो फिर आने के लिए.....
नवंबर अंक
मुकेश कुमार मिश्र
1 comment:
सुन्दर सृजन
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