यादों के महल में हम हर रोज़ जा
दीवारों पर टँगी तस्वीरों से मन
सच-झूठ के फर्क को भूल जा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
प्रश्नों के भँवर में हम रोज़ गो
धोके की परत को रोज़ हटाते हैं..
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
भावनाओं के कटघरे में रोज़ ख
खुद ही सज़ा हम रोज़ फिर सुना
खुद ही सज़ा हम रोज़ फिर सुनाते हैं ....
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
ये होता वो होता...इस दलदल में
सही गलत के मायाजाल से रोज़ खुद
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
खुद की ही सच्चाई हम बार-बार सा
रिश्तों की डोर बार-बार सुलझा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
सपने हज़ारो हम यही बुनते च
मुस्कुराहटों को यूँ ही सं
अपने परायों का फर्क बार-बा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
ये सांझ का साया है…..
या अंधेर- रात की आहट..
या फिर सुनहरी धुप की चाहत
हम ना समझ पाते हैं .. .
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
यादों के महल में हम हर रोज़ जा
नवंबर अंक
डॉ. स्वाति जैन
3 comments:
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