कल जब शरद पूर्णिमा के शुभ संदेशों का मौसम छाया,
मुझे अपने बचपन के शरद पूनम का दिन याद आया,
मां पीतल की चमचमाती बटलोईमें दूध चढ़ाती थी
चावल मिश्री मेवे डाल मधुर क्षीरान्न बनाती थी
इलायची केसर की सुगंध हमें खूब ललचाती थी,
परंतु दिन में उस खीर का रस रसना कहां ले पाती थी !!!
संध्या समय सूर्यास्त के बाद जब हवा ठंडी हो जाती थी,
खीरसे भरी पतीली छत पर ले जाई जाती थी,
खीर का लालच में छत पर खींच ले जाता था कीड़े ,भुनगों से खीर की रक्षा का काम हमसे करवाया जाता था,
हम भी इस काम में मुस्तैदी से लग जाते थे कभी पंखा ,कभी हाथ ,और कभी अखबार हिलाकर खीर को बचाते थे,
इंतजार रहता था चांद के आकाश में ऊपर चढ़ आने का ,
अपनी किरणें को खीर बरसा उसे अमृत बनाने का,
दूसरी तरफ पिताजी कुछ और भी समझाते थे ,
धवल शरद -चंद्रिका में हमसे धार्मिक पुस्तक पढ़वाते थे,
बताते थे पिता -श्री *"यह शरद चांदनी वरदायी है ,
तुम्हारे नेत्रों की ज्योति बढ़ाने पृथ्वी पर आई है
जो इसमें पढ़ेगा, सशक्त नेत्र पाएगा ,
विद्या का सच्चा अर्थ उसको समझ में आ जाएगा ,
योगेश्वर कृष्ण की कृपा उस पर बरसेगी ,
सकारात्मक भावना सदा हृदय में सरसेगी
खीर के लोभ में हम यह सब कर गुजर जाते थे,
तब कहीं जाकर देर रात गए अमृतमय क्षीर का आनन्द ले पाते थे।
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बचपन की याद कर ,कल मैंने भी खीर बनाई शरद -चंद्रिका से बरसता अमृत रस मिलाने को, छत के अभाव में ,उसे बालकनीमें रखआई ,
पर हाय रे विडंबना !!!ऐसा कुछ न हो पाया प्रदूषण के कारण उजला चांद निकल ही न पाया ,
शरद -पूर्णिमा का वह शुभ -निर्मल -मधुर -मदिर चंद्र ,
जिसे देखकर आनंद मग्न हो गए थे, मोहन, श्री कृष्ण चंद्र ,
किया था यमुना तट पर मोक्षदायी *महारास* उस दिन पूरी कर दी थी हर गोपीका के मन की आस ज कर पछताए!
त्योहार का सच्चा अर्थ तिरोहित होगया।
अब तो केवल संदेश भेजना- पाना बच गया।।।।
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