मैं कमरे में बैठा
सोंच रहा था
कि अंजाम क्या होगा
मेरे कार्यों का?
मेरे उन शाबासी लायक कारनामों का
तब तक टी वी पर नज़र गयी
ज़ुबान मेरी
मुँह में ही
फँस गयी
मैं एकटक देखता रहा
समझ में कुछ भी न आया
पर सुनता रहा
मन में विचारों को
बुनता रहा
उसी घेरे में डूबता रहा
डूबकर उतरता रहा
और.....................
मैं यही करता रहा
सोंचता रहा
तब तक टी वी पर चेतावनी आयी
कि शहर में घूम रहे हैं
आतंकवादी कई
मेरा दिल सिहर उठा
मैंने बन्द किया
टेलीविजन
और.........
बच निकलने का रास्ता
तलाशने लगा
एक नया विचार
बुनने लगा
इन्ही विचारों से तो
अब तक पुलिस से
खुफिया एजेन्सियों से
बचता रहा हूँ
नज़र में आकर भी छुपता रहा हूँ
जेल के सलाखों से भी
निकलता रहा हूँ
भीड़ में भी घूमता रहा हूँ
क्योंकि यदि मैं भी
अपना साथ छोड़ दूँ
फिर भी मेरा दिमाग
मेरा साथ नहीं छोड़ता
वह सदैव अपना कार्य करता रहता है
नये विचार बुनता रहता है
और हर बार मुझे बचाता रहता है
इसी से इस बार भी मैं बच निकला।
1 comment:
बहुत बढिया रचना है।
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